Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 401
________________ २१४ जयपुर (खानिया) तस्यचर्चा और उसकी समीक्षा परिणामोंके माघारपर ही समीचीन और असमोचीन मानता है, वह स्वयं समीचीन और असमीचीन होती है - ऐसा पूर्वपक्ष नहीं मानता है, इसलिए भी उत्तरपक्षका उक्त कथन अनावश्यक सिद्ध हो जाता है । प्रसंगवश यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष आत्मा के शुभाशुभ परिणामों के आधारपर जो शरीर द्वारा होनेवाली प्रवृतियोंके सम्बन्ध में समीचीनता और असीचीनताकी बात कर रहा है, वह शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी प्रवृत्तियों (क्रियाओं) के सम्बन्ध में ही कर रहा है, क्योंकि वह शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी प्रवृत्तियों (क्रियाओं) को ही यहाँ भ्रमचया जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको प्रवृत्तियाँ (क्रियायें ) समझ रहा है । यह बात में पूर्व में स्पष्ट कर चुका हूँ तथा वहींपर में उत्तरपक्ष की इस समझके मिथ्यापनको भी इस आधारपर स्पष्ट कर चुका हूँ कि जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रिया और शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवको क्रिया ये दोनों अपने-अपने पृथक्-पृथक् हेतु और आश्रम आधारपर पृथक पृथक् ही सिद्ध होती हैं । उत्तरपक्ष के उक्त कथनको समीक्षामें में तीसरी बात यह कहना चाहता हूं कि उस पक्षने अपने कथनके अन्त में जो यह लिखा है कि 'यदि वे स्वयं समीचीन और असमीचीन होने लगे तो अपने परिणामों के सम्हालको आवश्यकता ही न रह जाय। सो इस सम्बन्धमें भी मैं यही कहना चाहता हूँ कि जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया तो दूर रही, पूर्वपक्ष तो शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको मी स्वयं समीचीन और असमीचीन नहीं मानता है, अपितु वह जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभाशुभ मानसिक परिणामोंके आधारपर ही उसे समीचीन और असमीचीन मानता है, क्योंकि उसकी मान्यता है और जो आगमसम्मत है कि जीवका द्रव्य मन, बचन (मुख) और काय के सहयोगसे होनेवाला जीवको ही क्रियावती शक्ति के परिणामस्वरूप योग एकादश द्वादश और त्रयोदश इन तीन गुणस्थानोंमें भी हुआ करता है और वह योग इन तीनों गुणस्थानोंमें विद्यमान जीवोंके साथ सातावेदनीय कर्मके प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध में निमित्त भी होता है । वह उन गुणस्थानोंमें विद्यमान जीवोंके साथ उस कर्मके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध में निर्मित नहीं होता, क्योंकि योगकी शुभता और अशुभतामें कारणभूत जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप उस जीवके शुभाशुभ मानसिक परिणाम कषायके उदयमें दशम गुणस्थान तक ही हुआ करते हैं, जिनके बलपर ही वह योग वहाँ कर्मोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध के साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धमें कारण होता है। इस तरह दशम गुणस्थानके अन्त समयमें जब कषायका सर्वथा उपशम या क्षय होता है तो एकादश द्वादवा और त्रयोदश गुणस्थानोंमें जीव के योगका सद्भाव रहते हुए भी उस योगकी शुभता और अशुभताका अभाव रहनेके कारण बन्धयोग्य सातावेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध रूप बन्ध न होकर केवल प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध रूप ही बन्ध होता है। इसके साथ यह भी कहना चाहता हूं कि आगममें जीवको अपने जिन परिणामोंकी सम्हालका उपदेश fदिया गया है वे द्रव्य भनक सहयोगसे होनेवाले व जीवको भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुभाशुभ परिणाम ही हैं, क्योंकि उन परिणामोंसे ही प्रभावित योग जीव में कमोंके प्रकृतिबन्ध और प्रवेशयन्धके साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबंधका कारण हुआ करता | उत्तरपक्ष द्वारा अपने कचनके समर्थन में त० च० पु० ८६ पर उधृत सागारधर्मामृत अ० ४ पद्य २३ का व सर्वार्थसिद्धि अ० ६ सूत्र ३ का भी यही अभिप्राय है । इस विवेचनसे उत्तरपक्षका त० च० पू० ८७ पर निर्दिष्ट 'हमें विश्वास है कि इस स्पष्टीकरण

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