Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 404
________________ शंका-समाधान २ की समीक्षा २१७ पद गोणपनका ही सूचक है और तभी 'आम्यन्तर केवलमप्यलं ते' इस वचनकी सार्थकता बन सकती है।" आगे इसको समीक्षाकी जाती है निमित्त शब्दको सामान्यतया कारणका पर्यायवाची मानना निर्विवाद है। परन्तु कारणके जब अपादान 'और निमित्त ये दोन स्वीकृत करना आश्यक तो नादानका अर्थ कार्यरूप परिणत होनेवाला और निमित्तका अर्थ उपादान का मित्र के समान स्नेहन करनेत्राला अर्थात् सहायता करनेवाला कहना ही उचित है, क्योंकि उगादान और निमित्त दोनों शब्दोंकी व्युत्पत्तिके आधारपर उनका पृथक्-पृथक ऐसा ही अर्थ ध्वनित होता है । आगममें भी उपादान और निमित्त दोनों शब्दोंके अन्तरको स्पष्ट दिखलाया गया है। समयसारकी ८०-८२ गाथायें व पुरुषार्थसिद्धध्युपायकी १२-१३ कारिकाएं उपादान और निमित्त दोनों शब्दोंके अन्तरका स्पष्ट प्रतिपावन करती है। 'अंगभूत' परका गौण अर्थ पूर्वपक्षको भी मान्य है-यह बात पूर्वमें स्पष्ट की जा चुकी है। फेवल इसके सम्बन्धमें दोनों पक्षोंके मध्य विवाद इस बातका है कि जहां पूर्वपक्ष 'तदंगभूतम्' पदको 'आम्यन्तरम्' पदका विशेषण मानता है वहाँ उत्तरपक्ष उसे स्वपत्रपद मान लेता है। यही कारण है कि दोनों पक्षों द्वारा स्वयंभूस्तोत्रके पद्म ५९ के स्वीकृत अर्थ में अन्तर पाया जाता है। उनमें से पूर्वपक्षका अर्थ सम्यक् है, उत्तरपक्षका अर्थ सम्यक नहीं है इसका स्पष्टीकरण मैं पूर्वमें कर चुका हूँ। मैं पूर्वमें यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि उत्तरपक्ष 'अंगभूत' पदका जश्च गौण अर्थ स्वीकार कर लेता है तो उसने 'आभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते' वचनका जो अर्थ स्वीकार किया है वह असंगत सिद्ध हो जाता है। इसी तरह उक्त पद्य में पठित 'बलम्' पदका प्रकृतमें उत्तरपक्षको मान्य ‘पर्याप्त' अर्थ ग्रहण न करके 'समर्थ अर्थ हो ग्रहण करना चाहिये। मैंने पूर्वमें 'अलम्' पद का समर्थ' अर्थ ही ग्रहण किया है। कथन ७ और उसकी समीक्षा मागे त० च० पू० ८७ पर ही उत्तरपक्षने यह कथन किया है-'अपरपक्षने जीवित शरीरको क्रियाको आत्माके धर्म-अधर्ममें निमित्त स्वीकार करके यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में दोनों कारणोंको पूर्णता आवश्यक है और इसके समर्थनमें स्वयंभूस्तोत्रका 'बाह्यतरोपाघिसमग्रतेयम्' पचन उद्धृत किया है। किन्तु प्रकृतमें विचार यह करना है कि मोक्ष दिलाता कौन है ? क्या शरोर मोक्ष दिलाता है या वनवृषभनाराचसंहनन मोक्ष दिलाता है या शरीरकी क्रिया मोक्ष दिलाती है ? मोक्षकी प्राप्तिमें विशिष्ट कालको भी हेतु कहा है। क्या वह मोक्ष दिलाता है। यदि यही बात है तो आचार्य गृद्धपिन्छ तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारिवाणि मोक्षमार्गः १-१ इस सूत्रको रचना न कर इसमें बाह्याम्वन्तर सभी सामग्रीका निर्देश अवश्य करते । क्या कारण है कि उन्होंने बाह्य सामग्रीका निर्देश न कर मात्र आम्वन्तर सामग्रीका निर्देश किया है, अपरपक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए । किसी कार्यकी उत्पत्तिके समय आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रताके साथ चार सामग्रोको समग्रताका होना अन्य बात है और आभ्यन्तर सामग्री के समान ही बाह्य सामग्रीको भी कार्यकी उत्पादक मानना अन्य बात है। 'अन्तरम्' 'महदन्तरम् इस महान अन्तरको अपरपक्ष ध्यानमें ले, यही हमारी भावना है। यदि वह इस अन्तरको ध्यान में ले ले तो उस पक्षको यह हृदयगम करनमें सुगमता हो जाय कि हम बाह्य सामग्रीको उपरित कारण और भाभ्यन्तर सामग्रीको अनुपचारित कारण क्यों कहते हैं ? यह वो कोई भी साहसपूर्वक कह सकता है कि आत्मसम्मुख स०-२८

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