Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 409
________________ २२२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा इसना अवश्य है कि कारिकाका अर्थ करनेमें पूर्वपक्षने जो मार्ग अपनाया है उससे भी उसका (कारिकाका) अभिप्राय मटियामेट नहीं हुआ है, तथापि मैं मानता हूँ कि 'आम्बन्त रमूलहेतोः' पक्ष कारिकामें 'गुणदोषसूते.' पदका विशेषण मान्य करना भी अनुचित नहीं है, इसलिये मैंने समीक्षा-प्रकरणमें उसे 'गणदोषसूतेः' पदका विशेषण स्वीकार करके ही उसका अर्थ किया है। इस तरह उक्त कारिकाके दो अर्थ विचारणीय हो जाते है-एक तो उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ और दूसरा मेरे द्वारा स्वीकृत अर्थ । दोनों अर्थ निम्न प्रकार है उस रपक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ यह है कि अम्यन्तर अर्थात् उदादान कारण जिसका मूल हेतु है, ऐसी गुण और दोषोंकी उत्पत्तिका जो बाद्य वस्तु निमित्त मात्र है, मोक्षमार्गपर आरूढ़ हुए जीवके लिये वह गौण है, क्योंकि हे भगवन् ! आपके मतमें उपादान हेतु कार्य करने में पर्याप्त है ॥५९।। (त० च० पृ० ७९) । उत्तरपक्ष द्वारा त० च पृ० ८१ पर जो अर्थ किया गया है, वह भी इसीसे मिलता-जुलता है। मेरे द्वारा स्वीकृत अर्थ यह है कि अभ्यन्तर अर्थात् अन्तरंग परिणाम जिसका मूल हेतु है ऐसे गुणों और दोषोंकी उत्पत्तिका जो बाह्य वस्तु निमित्त अर्थात् अवलम्बन है अध्यात्ममें प्रवृत्त (लोकोत्तर) जनके लिये बह बाह्य वस्तु जिसकी अंग अर्थात् गौण रूपसे सहायक बनो हुई है ऐसा अन्तरंग परिणाम केवल भी हे भगवन् ! आपके मतमें समर्थ है—(प्रश्नोत्तर के द्वितीय दौरकी समीक्षा)। मैंने प्रश्नोतर २ के द्वितीय दौरकी समीक्षामें जो प्रकृत विषयका स्पष्टीकरण किया है उससे निर्णीत हो जाता है कि उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ उक्त कारिकाका सम्यक् अर्थ नहीं है अपितु मेरे द्वारा स्वीकृत अर्थ ही सम्यक् है । अब यदि तत्त्व जिज्ञासुजल प्रॉपर IE- स स पापाः कि पूर्वपक्ष द्वारा या मेरे द्वारा कृत अर्थसे कारिकासे ध्वनित होनेवाला अभिप्राच मटियामेट नहीं हुआ है, अपितु उत्तरपक्ष द्वारा कृत अर्थसे ही यह मटियामेट हुआ है क्योंकि पूर्णपक्षने या मैंने तो अपने अर्थमें आगमको घ्यानमें रस्ता है, परन्तु उत्तरपक्षने अपने अर्थमें आगमकी पूर्णतया उपेक्षा कर दी है। इसका स्पष्टीकरण इसी प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें किया गया है। मागे वहींपर उत्तरपक्षने लिखा है कि "कारिकामें आया हुआ 'अपि' पद एवं' अर्थको सूचित करता है" सो उसका यह कहना उचित न होकर 'अपि' पदका 'भी' अर्थ करना ही उचित है। यह बात भी प्रकृत प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें मेरे द्वारा कृत स्पष्टीकरणसे जानी जा सकती है। अपने प्रकृत कथन में उत्तरपक्षने जो यह लिखा है--'दुसरे अंगभूतम्' पदका अर्थ प्रकृतमें 'गौण' है। किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय सामिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है।' सो उत्तरपक्षका पूर्वपक्ष के प्रति यह लिखना असत्य है क्योंकि पूर्वपक्षने इस विषयमें जो कुछ लिखा है वह निम्न प्रकार है स्वयंभूस्तोत्रके इससे पूर्ववर्ती श्लोक--'यद्वस्तु वाह्यं गुणदोषसूते.'--का जो अर्थ आपने अपने प्रत्युत्तरमें किया है दरासे बाह्येत्तरोपाधि-पलोकके साथ पूर्वापर विरोध प्रतीत होता है. इसलिये हमारी दृष्टि से यदि उसका निम्न प्रकार अर्थ किया जाय तो उससे पूर्वापर विरोध ही दूर नहीं होता, बल्कि संस्कृत टीकाकारके भावकी भी सुरक्षा होती है। अर्थ-गुण, दोषकी उत्पत्ति में जो बाह्य वस्तु निमित्त है वह कि अध्यात्मवृत्त-आत्मामें होनेवाली शुभाशुभ लक्षणरूप अन्तरंग मल कारणका अंगभूत है-सहकारी कारण है, अतः केवल अन्तरंग भी कारण कहा जा सकता है।

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