Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान २ को समीक्षा
२२१ 'समाधान यह है कि जिस समय जो कार्य होता है उस समय उसके अनुकूल आग्यन्तर सामग्रीकी समग्रताके समान बाह्य सामग्रीको समग्रता होतो ही है। इसीका नाम द्रव्यगत स्वभाव है । किन्तु इन दोनोंमें से किसमें किस रूपये कारणता है इसका विचार करनेपर विदित होता है कि बाह्य सामग्रीमें कारणता असद्भुत व्यवहारनयसे ही बन सकती है। आभ्यन्तर सामग्रीमें कारणताको जिस प्रकार राभूत माना गया है, उसी प्रकार यदि बाह्य सामग्रीमें भी कारणताको सदभत माना जाय तो पुरुषकी मोक्ष विधि नहीं बन सकती । यह उक्त कारिकाका आशय है।' आगे इसकी समीक्षा की जाती है
कारिकाका क्या भाशय है ? यदि इसे दूर रखा जाय तो कहा जा सकता है कि उत्तरपक्षका यह लेख विवादका विषय नहीं है, ऐसी स्थिति में उसने पूर्वपक्षके प्रति जो यह धारणा बना ली हैं कि वह बाह्य सामग्रीमें भी कारणताको आभ्यन्तर सामग्रीमें विद्यमान कारणताके सदृश सद्भूत मानता है सो उसका यह या तो भ्रम है या जानते हुए भी वह उसपर यह आरोप तत्त्व-जिज्ञासुओंको भुलावे में डालनेके लिये लगा रहा है। कुछ भी हो, इसमें मेरा कहना तो यह है कि पूर्वपक्षकी मान्यता तो यह है कि कार्यके प्रति आभ्यन्तर सामनी भी होती है और शह; सामसोनाडोती : साम्यन्तर सामग्रीको कारणता तादात्म्य संबंधाबित होनेसे निश्चयनय या सदभुत व्यवहारनयका विषय है और वाह्य सामग्रीकी कारणता संयोग संबंधाश्रित होनेसे असत व्यवहारमयका विषय है, क्योंकि आभ्यन्तर सामग्री कार्यरूप परिणत होती है और बाध सामग्री उस कार्यमें उपादानको सहायक होती है। इस तरह दोनों ही अपने-अपने ढंगरो कार्यकारी हुआ करती है। दोनोंमें कोई भी अकिंचित्कर नहीं रहा करती है। इससे निणीत होता है कि दोनों पक्षोंके मध्य विवाद कार्योत्पत्तिके प्रति बाह्य सामग्नीमें विद्यमान कारणताको असद्भूत मानने न माननेका नहीं है, अपितु विवाद इस बातका है कि जहाँ पूर्वपल नाह्य सामग्री में स्वीकृत कारणताको कार्योत्पत्ति में उपादान कताके रूपमें कार्यकारी स्वीकार करता है वहां उत्तरपक्ष बाह्य सामग्रीमें स्वीकृत कारणताको कार्योत्पत्तिक प्रति सहायक न होने सृगमें सर्वथा किंचित्कर स्वीकार करता है। प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पूर्वपक्षकी मान्यता राभ्यक् है उत्तरपक्षकी मान्यता सम्यक नहीं है । उपर्युक्त कारिकाका क्या आशय है, यह पूर्व में इसी प्रश्नोत्तरकी समीक्षामं स्पष्ट कर दिया गया है।
कथन ९ और उसको समीक्षा
उसरपनने आगे त च० प्र० ८९ पर यह कथन किया है-"अपरपक्षने इसी प्रसंगमें 'यवस्तु बाध इत्यादि कारिकाका उल्लेख कर अपनी दृष्टि से उसका अर्थ किया है किन्तु वह ठीक नही, क्योंकि उसका अर्थ करते समय एक तो 'आभ्यन्तरमूलहेतोः' पदको ‘गुणदोषसूतेः' का विशेषण नहीं बनाकर 'अध्यात्मवृत्तस्य आभ्यन्त रमूलहेतोः तत् अंगभूतम्' ऐसा अन्वय कर उसका अर्थ किया है ।दूसरे, 'अंगभूतम्' पदका अर्थ प्रकृती 'गौण' है। किन्तु यह अर्थ न कर उसका अर्थ करते समय साभिप्राय उस पदको वैसा ही रख दिया है । तीसरे, चौथे चरणमें आये हए 'अलम' पदकी सर्वथा उपेक्षा करके उसका ऐसा अर्थ किया है जिससे पुरी कारिकासे ध्वनित होनेवाला अभिप्राय ही मटियामेट हो गया है ।" आगे इसकी समीक्षा की जाती है
उत्तरपक्षने प्रतिक्षका २ का समाधान करते हुए स०च. पृ० ७९ पर 'यदनस्तु बास्' इत्यादि कारिकाका अपने पक्ष के समर्थन में उद्धरण देकर उसका जो अर्थ किया है, उससे पूर्वपक्ष सहमत नहीं था और न है भी। इसका स्पष्टीकरण मैंने प्रकृत प्रश्नोत्तरक द्वितीय दौरकी समीक्षामें विस्तारके साथ किया है।