Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 406
________________ tter समाधान २ की समीक्षा 'संसारकारण निवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तकियो परमः सम्यक् चारित्रम् ।' इसका अर्थ उसने यह किया है कि संसार के कारणोंकी निवृत्तिके प्रति उद्यत हुए ज्ञानी पुरुष कर्म ग्रहण में निमित्तभूत क्रियाका उपरत होना सम्यक्चारित्र है ।' २१९ ะ मेरा कहना कि पूर्वपके लिये यह सब विवादको वस्तु नहीं है। यह बात मेरे समीक्षात्मक विवेचनसे स्पष्ट हो जाती है। विवाद तो इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष इसमें 'क्रिया' पदसे जीवके सहयोगसे होने वाली शरीरकी क्रियाका अभिप्राय ग्रहण करता है वहाँ पूर्वपक्ष इसमें 'क्रिया' पदसे शरीरके सहयोग से होने वालो जीचकी क्रियाका अभिप्राय ग्रहण करता है । मेरे समीक्षात्मक विवेचनसे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि इनमेंसे पूर्वपक्ष की दृष्टि सम्यक् है और उत्तरपक्षकी दृष्टि असम्यक् है । उत्तरपक्षतं सर्वार्थसिद्धिके उक्त वचनके आधारपर आगे त० च० पृ० ८८ पर यह कथन किया है - " यह आगम वचन है। इससे विदित होता है कि रागमूलक और योगमूलक जो भी क्रिया होती है वह मात्र बन्त्रका हेतु है। अब अपरपक्ष हो बतलावे कि उक्त क्रिया शिवाय ओर ऐसो शरीरकी कौन-सी क्रिया बचती है जिसे मोक्षका हेतु माना जाय । हमने भी जीवित शरीरको क्रियाको धर्म-अधर्मकी निमित्त कहा है । किन्तु उसका इतना ही आशन कि बाह्य are sserनिष्ट बुद्धि होनेपर उसके साथ जो भी शरीरको क्रिया होती है उसे उपचारसे अधर्मका निमित्त कहा जाता है और इसी प्रकार आत्मसन्मुख हुए जीवके धर्म परिणति के कालमें शरीरकी जो भी क्रिया होती है, उसे उपचार से धर्मका निमित्त कहा जाता है । इसी प्रकार देव-गुरु-शास्त्रको लक्ष्य कर शुभ भावके होने पर उसके साथ जो भी क्रिया होती है उसे उपचारसे उसी भावका निमित्त कहा जाता है ।' 33 इस कथनके सम्बन्धमें में पहली बात तो यह कहना चाहता हूँ कि पूर्वपक्षकी मान्यता के अनुसार भी रागमूलक और योगमूलक जो भी क्रिया होती है वह बन्धका ही कारण होती है, परन्तु वह क्रिया जीवके सहयोगसे होने वाली शरीरको क्रिया न होकर शरीर के राहयोगसे होने वाली जीवकी ही क्रिया है ऐसा मान्य आगम सम्मत है। इसमें विशेष यह ज्ञातव्य है कि वह क्रिया यदि केवल प्रवृत्तिरूप है तो वह बन्धका ही कारण होती हैं और वह क्रिया यदि यथायोग्य प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक हो रही है तो वह कर्मबन्धके साथ कर्मसंवर और कर्मनिर्जरणका भी कारण हो जाती है। इस विषयको प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा - प्रकरण में विस्तार के साथ स्पष्ट किया जा चुका है । करना इस कथन के विषय में मैं दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि यहाँ प्रकरण इस बातका चल रहा है कि मोक्षको प्राप्ति के लिये भव्य जीवको मनुरुदेहकी प्राप्ति होना व उसका वज्रवृषभनाराच संहननविशिष्ट होना आवश्यक है या नहीं ? तथा सुषमा दुःषमा दुःषमा- सुषमा वा दुःषमा कालकी प्रवृत्ति आवश्यक है या नहीं ? उत्तरपक्षका कहना है कि मोक्षकी प्राप्ति तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-वारिश्र से ही होती हैं, परन्तु उस अवसर पर यह सब बाह्य सामग्री भी विद्यमान रहती है। पूर्व पक्षका कहना यह है कि मोक्षकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से ही होती है, परन्तु उक्त बाह्य सामग्री उसकी सहायक हुआ करती है । उत्तरपक्षकी मान्यतासे यह बात निश्चित होती है कि उक्त अवसरपर बाह्य सामग्रीका रहना नियत है तथा पूर्वपक्षको मान्यतासे यह बात निश्चित होती है कि उपादान सामग्री के साथ यदि बाह्य सामग्रीका समागम हो जावे

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