Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 398
________________ शंका-समाधान २ को समीक्षा २११ इसके अतिरिक्त यहां यह भी समझ लेना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि जोव प्रायः आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्ति ही किया करते हैं। परन्तु बहुतसे मिथ्यादृष्टि जीव आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पाएरूप प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश होनेवाली पुण्यरूप प्रवृत्ति भी किया करते है। कोई-कोई मिथ्यादृष्टि जीव आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक अपाक्तिवश होनेवाली आरंभी पापरूप प्रवृत्तिके साथ कर्तव्यवश होनेवाली पुण्यरूप प्रवृत्ति किया करते हैं। इतना ही नहीं, कोई-कोई मिथ्यादृष्टि जीच आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्ति के सर्वथा त्याग पूर्वक अशक्तिवश होनेवाली आरंभी पायरूप प्रवृत्तिका भी एक क्षेप या सर्वदेश त्याग करते हए यथायोग्य आवश्यकरूपसे या अनिवार्य रूपसे आरंभी पापरूप प्रवृत्ति के साथ कर्तव्यवश होनेवाली पुष्यरूप प्रवृत्ति किया करते है। यहांपर यह भी ध्यातव्य है कि ऐसी उक्त प्रकारकी सभी प्रवृत्तियां मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव समान रूपसे यथावसर करते रहते हैं। परन्तु ये जीव इनके आधारपर कर्मोका बन्द ही किया करते हैं। इतना अवश्य है कि कोई बिरला मिथ्वादृष्टि भन्य यदि आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मख हो जावे तो बह यथायोग्य आरंभी पापरूप और पुण्यरूप प्रवृत्तियोंके करने के साधारपर कर्मोंका बन्ध करते हुए भी आसक्तिवश होनेवाली संकल्पी पापरूप प्रवृतिसे निवृत्ति होनेके आधारपर कर्मोका संवर और निर्जरण भी करने लग जाते हैं। शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों और इस प्रकारको प्रवृत्तियोंसे होनेवाली निवृत्ति तथा उनसे होनेवाले यथायोग्य कर्मबन्ध मा कर्मसंबर और कर्मनिर्जरण सम्बन्धी जीवकी आगेके मुणस्थानोंमें किस प्रकारको व्यवस्था है इसे प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा-प्रकरणमें विस्तारसे स्पष्ट कर दिया गया है। इस विवेचनसे उत्तरपक्षका 'जो धर्म और अधर्मके कारण है वे स्वयं धर्म और अधर्म भी है' यह कथन निरस्त हो जाता है, क्योंकि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि धर्म और अधर्म जीवकी भाववती शक्ति के परिणमन हैं और उनमें जो यथायोग्य साक्षात या असाक्षात् कारण होते हैं वे जीवकी भाववती और क्रियावती शक्तिके परिणमन है। इतना अवश्य है कि उन्हें जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म और अधर्ममें कारण होनेसे यदि व्यवहार धर्म कहा जाये तो यह आगन सम्मत है। कथन २ और उसकी समीक्षा आगे उत्तरपक्षने त० च० पृ० ८६ पर यह कयन किया है -'यतः अपरपक्ष जीवित शरीरको क्रियासे धर्म और अधर्मको प्राप्ति मानता है अतः उस पक्षके इस कथनसे जीवित शरीरकी क्रिया भी स्वयं धर्मअधर्म सिद्ध हो जाती है। यही कारण है कि मूल प्रश्न उत्तरके प्रारम्भमें ही हमने यह स्पष्टीकरण करना उचित समझा कि जीवित शरीरको क्रिया न तो स्वयं आत्माका धर्म ही है और न अधर्म ही। अपरपक्षने अपनी इस प्रतिशंका ३ में विधिमुखरो यह तो स्वीकार कर लिया है कि धर्म और अधर्म शात्माकी परिणतियां हैं और वे आत्माम ही अभिव्यक्त होती है। किन्तु निषेध मुखसे वह पक्ष यह और स्वीकार कर लेता कि जीवित शरीरकी किया न तो स्वयं धर्म है और न अधर्म ही, तो उस पक्ष के इस कथनसे यह शंका दूर हो जाती कि वह पक्ष अपनी भूल शंका द्वारा कहीं जीवित शरीरकी क्रियाको ही तो धर्म-अधर्म नहीं ठहराना पाह रहा है। अतः इस शंकाका निर्मुलन हो जाय इसी भाबको ध्यान में रखकर हमने प्रथम उत्तरके प्रारंभमें यह खुलासा किया है कि जीवित शरीरको क्रिया न तो स्वयं मात्माका धर्म है और न अधर्म ही ।'

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