Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 395
________________ २०८ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा योगका जीव में सर्वथा अभाव हो जाता है तब कर्मोके प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध भी समाप्त हो जाते हैं । यह विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। इस विवेचन से मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपनी मान्यताके समर्थन में और पूर्वपक्षकी मान्यता के विरोध में जो समयसार गाथा १६७ का उद्धरण अपने वक्तव्य में दिया है उसका यही आशय ग्रहण करना युक्तिसंगत है कि जीव की क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियारूप परिणमन जबतक बद्ध कर्मोंके उदयसे प्रभावित जीवको भाववती शक्तिके रागादि रूप परिणमनसि प्रभावित रहता है तबतक हो जीवके साथ कर्मोका बन्ध स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके रूप में होता है। उक्त गायाका यह आशय कि 'जब तक जीनकी भारतीय पनि होता रहता है तब तक ही कर्मोंका बन्ध हुआ करता है और जब उसका रागादिरूप परिणमन समाप्त हो जाता है तब कर्मोका बन्ध समाप्त हो जाता है' ग्रहण करना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जीवकी नाथवती शक्तिके रागादि रूप परिणमनों की समाप्ति हो जानेपर भी जीवकी क्रियावती शक्ति के मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियारूप परिणमनोंके आधारपर कर्मोंके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध चालू रहते हैं । अतः उनका कारण जीवको भाववती शक्तिके परिणमनोंको न माना जाकर उसकी क्रियावतो शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोंको हो उक्त आगम वचनोंके आधारपर माना जा सकता है। इसपर उत्तरपक्षको विचार करनेकी आवश्यकता है । इस तरह उत्तरपक्षने अपनी मान्यता के समर्थन में जो रत्नकरण्ड श्रावकाचारके पद्य ३ का उद्धरण दिया है उसका आशय भी निश्चयरूपमें इस रूप ग्रहण करना चाहिए कि मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर जीवको भाववती शक्तिके स्वभावभूत परिणमनके रूपमें निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र प्रकट होते हैं व मोहनीय कर्मके उदयके आधारपर जीवको भाववती शक्ति के विभा भूत परिणमनके रूपमें निश्चय मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र प्रगट होते । जिनके प्रगट होने की व्यवस्था निम्न प्रकार है - (क) दर्शनमोहनीय कर्मके भेद मिथ्यात्व कर्मके उदय में जीव की धद्धारूप भाववती शक्तिके विभाव परिणमनके रूप में निश्चय मिथ्यादर्शन रूप आत्मस्थिति हुआ करती है । (ख) दर्शनमोहनीय कर्मके ही भेद सम्परिमथ्यात्व कर्मके उदय में जीवकी श्रद्धारूप भाववती शक्तिके विभाव और स्वभाव के मिश्रित परिणमन के रूपमें निश्चयसम्यग्मिथ्यात्व रूप आत्मस्थिति हुआ करती है । (ग) दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशममें जीवको प्रारूप शक्ति के स्वभाव परिणमनके रूपमें औपशमिक क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चय सम्यग्दर्शनरूप आत्मस्थिति हुआ करती है । ( ) दर्शनमोहनीय कर्मके उपय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम में उक्त निश्चयमिध्यादर्शन, निश्चयसभ्य मिथ्यादर्शन और निश्वयसम्यदर्शनके समान ही जीवकी ज्ञानरूप भाववती शक्तिके यथायोग्य विकृत, विकृताविकृत और भविकृत परिणमनके रूपमें निश्चय मिथ्याज्ञान आदि रूप आत्मस्थिति हुआ करती है । (च) मोहनीय कर्म अनुबन्ध कषायके उदयमें जीवको चारित्ररूप भाववती शक्तिके विभाव परिणाम के रूप में निश्चयः मिथ्याचारित्ररूप आत्मस्थिति हुआ करती है । ▸

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