Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 393
________________ २०६ कथन १ और उसकी समीक्षा सर्वप्रथम ० ० पृ० ८५ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है- 'हमने प्रथम उत्तरमें ही यह स्पष्टीकरण किया हैं कि जीवित वारीरकी क्रिया जीवका न तो धर्म है और न अधर्म ही । इसपर अपरपक्षका कहना है कि यह हमारे मूल प्रश्नका उत्तर नहीं है। समाधान यह है कि यदि जीवित शरीरकी क्रियारो धर्म-अधर्मकी प्राप्ति स्वीकार की जाये तो उसे आत्माका धर्म-अधर्म भी मानना अनिवार्य हो जाता है ।' आगे इस कथन के समर्थन में उसने ( उत्तरपक्षने) समयसारगाथा १६७ और रत्नकरण्ड श्रावकाचार पथ को उद्धत करते हुए लिखा है कि 'जो धर्म और अधर्मके कारण हैं वे स्वयं धर्म और अधर्म भी है।' इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा (क) पूर्वपक्षके प्रतिशंका २ और ३ के विवेचनों पर ध्यान देनेसे यह बात समझ में आती है कि उसे उत्तरपक्ष की जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाको पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानकर उसे अजीव तत्यमें असंभूत करने और उससे आत्मायें धर्म-अधर्म न माननेके विषय में कुछ भी आपत्ति नहीं है। मैंने अपनी प्रकृत विषय संबंधी समीक्षा में भी इस बात को स्पष्ट कर दिया है । परन्तु वहीं पर मैंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पूर्वपक्षकी एक अन्य मान्यता यह भी हैं कि शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिम पुद्गल द्रव्यकी पर्याय न होकर जीनकी ही पर्याय है अतः उसका अन्तर्भाव अजीव तत्व में न होकर जीव तत्वमें ही होता है व वह क्रिया आत्मा में होनेवाले धर्म और अधर्ममें कारण भी होती है । और मैंने अपनी उक्त समीक्षामें यह भी स्पष्ट किया है कि पूर्वपक्षका प्रश्न भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया विषयमें न होकर शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित दारीरकी क्रिमाके विषय में हो है ।' (ख) उत्तरपक्ष के द्वारा पूर्वपक्ष की शंका एक व प्रतिशंका र और ३ के विषयमें दिये गये उतरोंपर ध्यान देने से यह बात समझमें आती है कि वह पक्ष जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया के समान शरीर के सहयोग से होनेवाली जौवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाको भी पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानकर उसको अजीव तत्वमें ही अर्न्तभूत करता है और उससे भी वह आत्मामें धर्म और अधर्म नहीं मानना चाहता है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि दाँतों से काटना, मारना पीटना, तलवार - बन्दूक - लाठी चलाकर दूसरोंका पात करना, पूजा-प्रशाल करना, सत्पात्रोंको दान देना व अणुव्रत महाव्रत आदिको धारण करना आदि क्रियायें भी पुद्गल द्रव्यकी पर्यायें हैं। अतः उनका अजीव तत्वमें हो अन्तर्भाव होने से उनसे आत्मामें धर्म और अधर्म नहीं होते हैं। परन्तु उत्तरपक्षकी इस प्रकारकी मान्यताको में अपने विवेचन में आगमविरुद्ध स्पष्ट कर चुका हूँ। और में वहीं यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि दाँतोंसे काटना आदि उक्त सभी क्रियायें पुद्गल की पयें न होकर जीवकी ही पर्यायें हैं। केवल इतनी बात अवश्य है कि वे जीवकी पर्यायें होकर भी पुद्गल के सहयोगसे हुआ करती है। अतः उनका अन्तर्भाव अजीव तत्व में न होकर जीव सत्व में ही होता है और उनसे आत्मायें धर्म और अधर्म हुआ करते हैं। (ग) मैंने प्रकृत विषय के संबंध में सामान्य समीक्षायें तथा प्रथम और द्वितीय दोनों दौरोंकी समीक्षा में यह भी स्पष्ट किया है कि "जीवित शरीरको क्रिया" इस पदमें पठित 'शरीर' शब्दसे शरीर के अंगभूत द्रव्यमन, वचन और काय इन तीनोंका ग्रहण विवक्षित है तथा इन तीनोंके क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियायें जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमन हैं सहयोग से होनेवाली जीवकी व धर्म और अधर्म आत्माकी

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