Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान २ की समीक्षा
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भारपती शक्तिके परिणमन हैं। एवं वे सभी क्रियायें आत्मामें उक्त धर्म और अधर्मके होने में कारण होती है। इस तरह जीयकी क्रियायती शक्तिके परिणमन स्वरूप जोवित शरीरको क्रियाओंमें और आत्माकी भावबती शक्तिके परिणमन स्वरूप धर्म और अधर्ममे कार्य-कारणभाव सिद्ध हो जानेसे यह निर्णोत हो जाता है कि जीवकी वे क्रियायें स्वयं धर्म और अधर्म रूप नहीं हैं। इतना अवश्य है कि जीयकी उन क्रियाओंको जीवके ही अर्म और अधर्म रूप परिणमनोंमे कारण होनेसे व्यवहार रूपसे धर्म और अधर्म कहा जाना आगमसे समर्थित होनेसे पूर्वपक्षको मान्य है।
(4) मेरे इस विवेचनसे उत्तरपक्षका 'यदि जीवित धारीरकी क्रियासे धर्म और अधर्मकी प्राप्ति स्वीकारकी जाये तो उसे आत्माका धर्म-अधर्म भी मानना अनिवार्य हो जाता है। यह कथन भी निरर्थक हो जाता है।
(च) मैंने प्रकृत विषयके सामान्य समीक्षा-प्रकरण में यह भी साष्ट कर दिया है कि शरीरके अंगभूत व्रज्यमन, वचन और कायके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप जीवित शरीरकी क्रिया यदि संसार, शरोर और भोगों के प्रति अथना देवपूजा आदिके प्रति प्रवृत्तिरूप हो तो उसे जीवके साथ यथायोग्य शुभ और अशुभ कर्मों के होनेत्राले बन्धमें कारण होनेसे जीवके अधर्मभाश्रमें कारण माना गया है तथा वह जीवित शरीरकी क्रिया यदि उक्त प्रकारकी शुभ और अशुभ प्रवृत्तियोंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और फायगुप्तिके रूपमें निवृतिरूप हो तो उसे कर्मोंके संबर और निर्जरण में कारण होनेसे जीवके धर्मभावमें कारण माना गया है।
(छ) इस विवेचनसे यह बात भी समझ में आ जाती है कि जीवकी उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिरूप व उस प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रियासे कर्मोका यथायोग्य बन्धया संवर और निर्जरण होना ही जीवकी क्रियावती शक्तिकी सार्थकता है। यतः उत्तरपक्ष शरोरके गंगभूत यमन, वचन और कायके सहयोगसे होनेवाली 'दांतोंसे काटना' आदि उल्लिखित प्रवृत्तिरूप शुभ और अशुभ क्रियाओंको ओर उन प्रवृत्तिरूप दाभ और अशुभ क्रियाओंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें निवृत्तिरूप क्रियाओंको जीवकी पर्याय न मानकर पुद्गलकी ही पर्याय मानता है, अतः इन प्रवृत्तिरूप और निवृत्तिरूप क्रियाओंमें जीवकी भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म और अधर्मको कारणताका अभाव सिद्ध हो जानेसे वह पक्ष उक्त धर्म और अधर्मकी कारणता पूर्वक्षणवर्ती जीवको भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप धर्म और अधर्म ही मान लेना चाहता है जिससे उसके सामने जीवको क्रियावती शक्तिकी क्या सार्थकता है ? यह प्रपन विचारणीय हो गया है जिसका समाधान करना उसके वशकी बात नहीं है।
(ज) इसके अतिरिक्त तत्वार्थसूत्रके 'कायवाङ्मनः कर्म योगः (६-१)' और 'स आस्त्रधः (६-२)' सूत्रोंपर तथा आगमके अन्य इसी प्रकारके वचनोंपर भी ध्यान दिया जाये तो समझमें आ सकता है कि जीव के साथ पोद्गलिक कर्मोक बन्धका मुख्य कारण जीवकी क्रियावती शक्तिकी मानसिक, वानिक और कायिक अर्थात् मन, वचन और कायके अवलम्बनसे होने वाली प्रवृत्ति रूप क्रिया ही है जिसे आगममें योग नामसे कहा गया है। यद्यपि इस योगसे सामान्यतया कोके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्य ही होते है, परन्तु यह योग जबतक कषायोदयमे अनुरंजित रहता है तब तक इससे कर्मों के प्रवृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भी होते हैं । और जब इसमें कषायका अनुरंजन समाप्त हो जाता है तब केवल प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ही कोंके होते हैं, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध तब नहीं होते । और जब उक्त प्रकारके