Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 389
________________ २०२ जयपुर (स्लानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा पूजककी क्रियावती शक्तिका मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमन है। इनभेमे अन्तरंग परिणाम जो मानसिक परिणमन है वही प्रधान रहता है, क्योंकि यदि अन्तरंग परिणाम भक्ति करनेका न हो तो वाचनिक और कायिक बाह्य परिणामोंको आगममें निरर्थक बतलाया है और अनुभव भी यही बतलाता है । यही कारण है कि लौकिक जनके लिए चित्तको स्थिरता न रहने के कारण उनकी उस स्थिरताके लिए बाह्य वस्तुका अबलम्बन लेना आवश्यक बतलाया गया है और लोकोत्तर जनके लिए चिप्स स्थिर हो जानेके कारण बाह्य वस्तुका अवलम्बन यद्यपि आवश्यक नहीं बतलाया है, फिर भी प्रतिमा आदिका अवलम्बन गौणरूपसे लेने में असंगति भी नहीं है, इतना ही आशय स्वयंभू स्तोत्रके उक्त चतुर्थ पद्य का ग्रहण करना चाहिए । महाँ मैं एक बात यह भी कहना चाहता हूँ कि उसरपक्षने स्वयंभू स्तोत्रके उक्त पय ५९ का उद्धरण कार्योत्पत्तिमें निमित्तकी अकिंपित्करता सिद्ध करने के लिए ही दिया है और इसीलिये उसने उम पद्य के 'तदंगभूते' पदको स्वतंत्रपद मानकर उराका अर्थ अपने मतके अनुसार किया है । परन्तु वह यदि स्वयंभूस्तोत्रके ही पद्य ६० पर ध्यान देता तो वह ऐसा गलत प्रयत्न कदापि नहीं कर सकता था। दूसरी बात यह भी कह वेना चाहता हूँ कि उसने "तदंगभूतम्" पदमें पठित "अंग" शब्दका "मौण' अर्थ स्वीकार किया है जो बहाँपर कार्योत्पत्ति में निमित्तभूत बाह्य वस्तुको मानो तो सिर का विम जसको कामचित्करताको नहीं । उत्तरपक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए था । उत्तरपक्षने अपने वक्तव्य में तक च० ० ८० पर यह लिखा है कि "यदि जीवित शरीरको क्रियासे धर्म माना जावे तो मुनिको ईपिथसे गमन करते सगय कदाचित् किसी जीवके उसके पगका निमित्तपाकर, मरने पर उस क्रियासे मुनिको पाप बन्ध मानना पड़ेगा।" तथा अपने इस मन्तब्यके समर्थन में उसने सर्वार्थसिद्धिके बचनको भी उद्धृत किया है सो उसे मालम होना चाहिए था कि उसका यह सब कथन जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा ही संगत हो सकता है, शरीरके सहयोगसे होने वाली जीवक्री क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियाकी अपेक्षा नहीं। इसका कारण यह है कि शरीरके अंगभूत मन, वचन और कायके सहयोगसे जोन द्वारा किया गया प्रयत्न और साथ ही इनके सहयोगसे होनेवाली जीवकी निसर्गतः होने वाली योग रूप क्रिया ये दोनों कर्मबन्धका ही कारण होते है। तात्पर्य यह है कि जीवकी क्रियावती दाक्तिका पौद्गलिक मन, वचन और कायवे सहयोगसे जो कियारूप परिणमन होता है वह एक तो जोव द्वारा प्रयत्नपूर्वक्र किया जाता है जिसे पुरुषार्थ कहते हैं और दूसरा बिना प्रयत्न के प्राकृतिक ढंगरो हुशा करता है जिसे योग कहते हैं । मन, वचन और कायफे सहयोगसे होने वाले ये दोनों क्रियारूप परिणमन नियमसे कर्मके प्रकृति और प्रदेश बन्यके निमित्तकारण हुआ करते हैं। यत: पुरुषार्थरूप जीवकी क्रियावती शक्तिका परिणमन नियमसे भावयतो शक्तिके परिणमन स्वरूप अन्तरंग परिणाम रूप कषायभाबरो अनुरंजित रहा करता है अतः उस अवसरपर कर्मके स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध भी हुआ करते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवबो प्रवृत्ति रूप जीवित शरीरकी क्रिया तो हर हालतमें बन्धका ही कारण होती है। इसके अतिरिके जोकके सहयोगसे होने वाली शरीरकी प्रवत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रिया कभी भी बन्धका कारण नहीं होती है। इस तरह सर्वार्थसिद्धिक उन बचनका यही अभिप्राय लेना चाहिए कि जो मुनि सावधानी पूर्वक ईपिथसे गमन कर रहा हो उसकी यह

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