Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 349
________________ १६२ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसको समीक्षा ___ उत्तरपक्ष पूर्वपक्षके कथनपर विचार न कर अपने पूर्वाग्रहको ही दोहराता है, क्योंकि पूर्वपक्ष द्रव्य लिंगको मोक्षका तदरूप परिणत होने रूपसे यथार्थ कारण कहीं मानता है । यह तो उसमें सहायक होने रूपसे अयथार्थ कारण ही मानता है। उसका स्पष्ट कहना है कि ज्यालिग मालकी प्राप्तिम साधनभूत भावलिंगके प्रगट होने में सहायक होने रूपसे कार्यकारी साधन है। उत्तरपक्ष उन द्रब्यलिंगको मोक्षकी प्राप्लिमें साधनभूत भावलिंगके प्रगट होने में सहायक होने स्पसे कार्यकारी साधन नहीं मानता । उसे सर्वथा कल्पनामात्र कहकर अकिंचित्कर ही मानता है, जो आगम संगत नहीं है । यह विषय पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। कथन ७८ और उसकी समीक्षा (७८) आगे उत्तरपक्षने स०प० पृ०७० पर यह कथन किया है कि "अपरपक्षने हमारे कथनको ध्यानमें लिए बिना जो कार्य-कारण भावका उल्टा चित्र उपस्थित किया है वह इसलिये ठीक नहीं, क्योंकि म तो उपादानके कारण निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीको उपस्थित होना पड़ता है और न ही निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री के कारण उपादानको हो उपस्थित होना पड़ता है। यह सहज योग है जो प्रत्येक कार्यमें प्रत्येक समय में सहज हो मिलता रहता है। "मैंने अमुक कार्य के निमित्त मिलाये" यह भी कथन मात्र है जो पुरुषके योग और विकल्पको लक्ष्यमें रखकर किया जाता है। वस्तुतः एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको क्रियाका कर्ता त्रिकाल में नहीं हो सकता। अतः यहां हमारे कथनको लक्ष्यमें रखकर अपरपक्षने कार्यकारणभावका जो उल्टा चित्र उपस्थित किया है उसे कल्पनामात्र हो जानना चाहिए"। आगे इसकी समीक्षा की जाती है। वायु चलती है तो वृक्ष की हालियो हिलती हैं । इसमें वायुका चलना वायुमें हो रहा है और वृक्षकी डालियोंका हिलना आलियों में हो रहा है। लेकिन यदि वायु में चले तो डालियां नहीं हिल सकतीं, ऐसा ज्ञान यदि लोकको होला है तो क्या उत्तरमश उसे असंगत मान लेना चाहता है ? यदि ऐसा है तो भवन-निर्माण करते समय उस भवनमें वायुके प्रवेशके लिए वह बुद्धिपूर्वक खिड़कियों को रखने की चेष्टा क्यों करता है ? और जिस समय उसे वायुकी उपयोगिता अनुभव में नहीं आ रही है अथवा वह वायु हानिकर अनुभव में आ रही है तो वह उन खिड़कियोंको बन्द करने की बुद्धिपूर्वक चेष्टा क्यों करता है? यदि इन सब बातोंको वह निमित्त और उपादानका अथवा निमित्त और कार्य का सहज योग मानता है, तो वह बुद्धिपूर्वक खिड़कियों के खोलने और बन्द करने या विविध कारणोंको जुटानेको भी चेष्टा क्यों करता है? उत्तरपक्ष अपने कार्यकी सम्पन्नताके लिये संकल्प भी करता है, उस संकल्प के अनुसार बुद्धिका विकल्प भी उसके मस्तिष्कमें उत्पन्न होता है और तदनुकूल बह प्रयन भी करता है। अब यदि उसका संकल्प, बुद्धिका विकल्प और प्रयत्न अभिप्रेत कार्यके अनुकूल होते है तो कार्य भी सम्पन्न होता है और यदि प्रतिकूल होते हैं तो कार्य सम्पन्न नहीं होता या उनके आधारपर उपादामकी योग्यताके अनुसार प्रतिकूल कार्य सम्पन्न हो जाता है। इतना ही नहीं, उसका संकल्प, बुद्धिका विकल्प और प्रयत्न कार्मक अनुकूल होते हुए भी यदि वहाँपर अन्य निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका अभाव हो या बाधक कारण उपस्थित हो जाय या उपादानमें कार्यानुकूल योग्यताका आभाव हो तो भी कार्य सम्पन्न नहीं होता है। उत्तरपक्षसे मेरा एक ही प्रश्न है कि यह ऐसी स्थितिमें क्या अपने संकल्प, विकल्प और प्रयत्नको कार्योत्पत्ति में सर्वथा 'कल्पनामात्र' और अकिंचित्कर माननेके लिए तैयार है ? और यदि वह इन्हें जहाँ सर्वथा कल्पनामात्र व अकिचिकर ही मानता है तो उसके ये संकल्प, विकल्प और प्रवल तीनों असम्यक् हो जानेसे फिर वह यह सब क्यों

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