Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 366
________________ शंका-समाधान १ की समीक्षा परिणत होने में आगमकी इस अवस्थाको मान्य करता है कि उसका वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवकी परिणतिके सहयोगसे होता है वहाँ उत्तरपक्ष पदगलके कर्मला परिणस होने में आगमकी इस व्यवस्थाको मान्व नहीं करता कि उसका कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवको परिणतिके सहयोगसे होता है। उसकी मान्यता है कि पुद्गलका वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवके सह्योगके बिना अपने आप ही होता है। उत्तरगक्षकी इस मान्यतामै दोष यह है कि उसे, समयसार माथा ११६ के प्रथम तीन चरणोंका "यदि पुद्गल द्रम्पको जीवमें स्वयं अर्थात् निमित्तभूत जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही बद्ध न माना जाये व उसके कर्मरूप परिणमनको स्वयं अर्थात निमित्तभत जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही न माना जाय" यह अर्थ स्वीकार करना होगा। इसका परिणाम यह होगा कि उसकी उक्त मान्यताके आधारपर पुद्गल द्रव्यको समयसार गाथा ११६ के चतुर्थ चरणके अनुसार अपरिणामो (कूटस्थ) न मानकर परत:परिणामी अर्थात् पर के सहयोगसे परिणमन करनेवाला स्वीकार करना होगा, जो उत्तरपक्ष को अभीष्ट नहीं है, क्योंकि वह पुदगलके कर्मरूप परिणममकी उत्पत्तिको स्वयं अर्थात निमित्तभत जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही मान्य करता है । इस तरह सपयसार गाथा ११६ का चतुर्थ चरण असंगत हो जायेगा । इतना ही नहीं, हम गाथा ११६ का गाथा ११७ के साय समन्वय करना भी असम्भव हो जायेगा, क्योंकि गाथा ११७का सुसंगत अर्थ यह है कि ''पदमलकर्मवर्गणाएँ जन अपरिणामी (कटस्थ) बनी रहेंगी तो संसारका अभाव अथवा सांख्यमत प्रसक्त होता है। इस तरह रामपराार गाथा ११६ के चतुर्थ चरणके साथ उसके प्रथम तीन चरणोंकी संगति बिठलाने के लिए और गाथा ११७ के साथ उसका (माथा ११६ का) समन्वय करनेके लिए गाथा ११६ के प्रथम तीन चरणोंका "यदि पुद्गल द्रश्यका जीवमें स्वयं अर्थात् अपनी स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यताके अनुरूप बद्ध न माना जाये व उसके कर्मरूप परिणमनको भी स्वयं अर्थात् अपनी स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यताके अनुरूप न माना जाये" यह अर्थ मान्य करना ही अनिवार्य है । अतएव पूर्वपक्षका कहना है कि समयसार ११६ से १२० तककी गाथाएँ पुद्गलकी कर्मरूप परिणत होने की स्वत-सिद्ध स्वभाविक योग्यताको ही बतलाती है। उसका यह कमरूप परिगमन स्वयं अर्थात निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप होता है इस बातको नहीं बतलाती हैं। अतः गाथा ११६ में पठित 'स्वयं' पदका पूर्वपक्षकी मान्यताके अनुसार 'अपने रूप' अर्थात् पुदगलकी कर्मरूप परिणति होने की योग्यताके अनुरूप" अर्थ करना ही सुसंगत है। उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार 'अपने आप' अर्थात् 'निमित्तभूत जीवके सहयोगके बिना' अर्थ करना सुसंगत नहीं है । इसकी पुष्टि इम्ही ११६ से १२० तककी गाथाओंको आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाके अन्त में रचे गये उनके कलश ६४ से मी होती हैं । वह कलश निम्न प्रकार है स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मानस्तस्य भवेत् स कर्ता ॥६४।। इसका अर्थ यह है कि इस प्रकार पृद्गलकी परिणामशक्ति (परिणमित होनेकी योग्यता) निर्विघ्नरूपसे स्वभावभूत सिद्ध होती है । उसके सिद्ध होनेपर वह पुदगल अपना जो भाव (परिणाम) करता है उसका यह कर्ता होता है।

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