Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार होनेपर भी निमित्तभूत जीवके सहयोगसे होता है वहाँ उत्तरपक्ष की मान्यताके अनुसार पुद्गलका वह क्रर्मरूप परिणमन उसमें विद्यमान कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार होनेके कारण अपने आप अर्थात् निमित्त भूस जीवके सहयोगके बिना ही होता है। इस तरह जहाँ पूर्वपक्षकी मान्यतामें पुद्गलके कर्मथप परिणमनमें निमित्तभूत जीव सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी सिद्ध होता है वहाँ उत्तरपक्षकी मान्यता पुद्गलके फर्मरूप परिणमनमें निमित्तभूत जीव सहायक न होनेके आधारगर अकिंचित्कर सिद्ध होता है ।
उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत समयसारको ११६ मे १२० तक की गाथाओंके उपत अर्थक विषममें मैं दूसरी नात यह कहना चाहता है कि उत्तरपक्ष द्वारा किये गये उक्त अर्थ के विषयमें पूर्वपक्षको सामान्यतः कोई विवाद नहीं है। परन्तु इतनी वात अवश्य है कि पूर्वपक्ष उसमें विद्यमान "स्वयं" पदका "आगने रूप" अर्थ करके यह सिद्ध करना चाहता है कि पुदगलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विद्यमान है, इसलिये उसका वह परिणयन निमित्तभूत जीवका सहयोग होनेपर ही पुद्गलकी उस शक्तिके अनुरूप होता है और उत्तरगा उसमें विद्यमान "स्वयं" पदका "अपने आप" अर्थ करके यह सिद्ध करना चाहता है कि पुद्गलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता विद्यमान है इसलिये उस शक्तिके आधारपर होने वाला उसका वह परिणमन निमित्तभूत जीवझे सहयोगके बिना ही होता है।
पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि उक्त गाथाओंके लिखने में आचार्य कुन्दकुन्दको और उनकी टीका करने में थाचार्य अमृतचन्द्रकी जो दुष्टि रही है उसे समझनेका पूर्वपक्षने तो प्रयास किया है इसलिये उसका कथन आगमानुकूल है । पर उत्तरपक्षनं उस समझनेका प्रयास हो नहीं किया है। केवल अपने पूर्वाग्रहयश ही उसने वह कथन किया, अतः उसका कथन आगमानुकूल नहीं है । तत्वजिज्ञासुओंको इसपर विचार करना चाहिए। कथन १४ और उसकी समीक्षा
(९४) उत्तरपक्षने त. व० पृ०७४ पर समयसार ११६ से १२० तक की गाथाओंका अर्थ करने के अनन्तर यह कथन किया है-"इस प्रकार इरा अर्थपर दृष्टिपात करनेसे ये दो सथ्य स्पष्ट हो जाते है-प्रथम तो यह कि अपरपक्षने उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है वह उन गाथाओंकी शब्दयोजनासे फलित नही होता। दूसरे इन गाथाओं में आये हुए "स्वयं" पदका जो मात्र "अपने रूप" अर्थ किया है वह ऐकान्तिक होनेसे ग्राह्य नहीं है। कर्ताक अर्थमें उसका अर्थ "स्वयं ही" या "आप ही" कुछ करना संगत है और यह बात आगम विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य आप कर्ता होकर अपने परिणामको उत्पन्न करता है" । इसकी समीक्षा निम्नप्रकार है
उसरपक्षने अपने इस वक्तव्यमें जो यह कथन किया है कि "अपरपक्षन उक्त गाथाओंका जो यह अर्थ किया है उन गाथाओंकी याब्दयोजनासे फलित नहीं होता"। सी उसके सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि उत्तरपक्ष इस कथनके पूर्व यदि पूर्वपक्षके उस कथित अर्थका भी निर्देश कर देता जिसको लक्ष्यमें लेकर उसने यह कथन किया है तो उत्तम होता, क्योंकि वास्तविकता यह है कि उक्त गायानका पूर्वपन भी वही अर्थ मान्य करता है जिसे उत्तरपक्षने सही मानकर त०१०प०७३-७४ पर निर्दिष्ट किया है। उस अर्थके विषयमें दोनों पक्षोंके मध्य केवल यह मतभेद है कि जहां उत्तरपक्ष उस अर्थमें "स्वयं" पदका "स्वयं ही" या "आप ही" अर्थ स्वीकृत करके उसका यह आशय ग्रहण करता है कि पुदगलका कर्महप परिमन उसके
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