Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 380
________________ शंका-समाधान २ की समीक्षा १९३ इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्तिरूप जीवित शरीरको क्रियाके आधारसे अपनी भाववसी शक्तिके परिणामस्वरूप विभावरूप अधर्मभावको प्राप्त होता है और अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप जीवित शरीरकी क्रिया आघारसे वह अपनी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप स्वभावरूप धर्मभावको प्राप्त होता है । इस विवेचन के आधारसे उत्तरपक्ष यदि कदाचित् प्रकृत विषय संबन्धी आगम के अभिप्रायको समझनेकी चेष्टा करें, तो मुझे विश्वास है कि वह पूर्वपक्षकी इस मान्यताको नियमसे स्वीकार कर लेगा कि शरीर के सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया से आत्मामें धर्म-अधर्म होता है । अब आगे प्रकृतप्रश्नोत्तर के प्रत्येक दौरकी समीक्षा की जाती है । २. प्रश्नोतर २ के प्रथम दौरको समीक्षा उत्तर प्रश्न के आशय के प्रतिकूल और निरर्थक प्रकृत प्रश्नोत्तरके सामान्य समीक्षा - प्रकरण से यह स्पष्ट है कि पूर्वपक्षका प्रश्न शरीरकै सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे संबंध रखता है। अर्थात् पूर्वपक्षने अपने प्रश्न में उत्तरपक्ष यह पूछना चाहा है कि शरीरके सहयोग से होनेवाली जीबकी क्रियारूप जीवित शरीरकी किवासे आत्मा धर्म-अधर्म होता है या नहीं ? लेकिन उत्तरपक्षने प्रश्नका जो उत्तर दिया है उसे देखनेसे स्पष्ट विदित होता है कि उत्तरपक्षका वह उत्तर शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रिया संबंध न रखकर जीवके राहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रिया से संबंध रखता है। अर्थात् उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के उपर्युक्त इनके उत्तर में यह बतलाना चाहता है कि जीयके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे आत्मायें धर्म-अधर्म नहीं होता है। इस तरह उत्तर प्रश्न आशय के प्रतिकूल सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीर की क्रियारूप औबित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होने या न होनेका विवाद नहीं है, क्योंकि उत्तरपक्ष के समान पूर्वापन भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मायें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति नहीं मान्य करता है। इससे उत्तरकी निरर्थकता भी सिद्ध होती है। इसी तरह इससे भी यह निर्णीत होता है कि पूर्वपक्षका प्रश्न जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे सापेक्ष न होकर शरीर के सहयोग से होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरको क्रियासे सापेक्ष है, क्योंकि दोनों पक्षों के मध्य विवादका विषय यही है । फलतः उत्तरपक्ष के सामने पूर्वपक्षका प्रश्न अभी भी अनिर्णयको स्थिति में अवस्थित है । प्रकृत विषय में उत्तरपक्षकी आगमसे विपरीत मान्यतायें उत्तरपक्ष शरीर सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियाको भी जीवके सहयोग से होनेवाली शरीरकी क्रिया मान लेना चाहता है । यह बात उत्तरपक्षने अपने उत्तरके समर्थन में त० ० ० ७६ पर नाटक समयसार पद्य १२१-१२३, समपसार कलश २४२ और परमात्मप्रकाश पद्य २ १९१ के जो उद्धरण दिये हैं उनसे ज्ञात होती है, क्योंकि नाटक रामयसार आदि उक्त वचनोंमें जो प्रतिपादन किया गया है वह सब शरीर के सहयोग होनेवाली जीवकी किमासे संबंध रखता है । तथापि उत्तरपक्षने उन वचनोंके आधारसे स०-२५

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