Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 379
________________ १२२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा वती शक्तिके विशव परिणामके रूपमें अवर्मभाव प्रगट होता है तथा बंधनेवाले कर्मकि बन्धमें रुकावटरूप संबर और बद्ध कर्मोके उपशम, क्षय और क्षयोपशम रूप निर्जरणसे जीवमें मानवती शक्तिके स्वभावपरिणमनके रूपमें धर्मभाव प्रगट होता है। यहाँपर यह ज्ञातव्य है कि जब तक प्रथम गुणस्थानमें विद्यमान जीव केवल अशुभ प्रवृत्ति करता है तब तक वह यथायोग्य कर्माका अन्ध ही करता है। तथा प्रथम, द्वितीय और तुतीय गुणस्थानोंमें विद्यमान जीव जो अशुभ प्रवृत्तिके साथ गुभ प्रवृत्ति करते हैं वे भी यथायोग्य कर्मोका बन्ध ही करते हैं। इतना ही नहीं, यदि कदाचित् कोई मिन्मादष्टि भव्य या अभत्र्य जीव भासक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्याग कर अशक्तिवश होनेवाली अाभ प्रवृत्ति के साथ शुभ प्रवृत्ति करने लगा हो तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई मिथ्यादृष्टि भव्य या अभव्य जीव कदाचित् आसक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्तिके सर्वथा त्याग पूर्वक अगक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका एकदेश मा सर्वदेश त्याग कर देता है तथा यथावश्यक या किंचित् अनिवार्य मशक्तिवश होनेवाली अनुभ प्रवृत्ति के साथ प्रधानतया शुभ प्रवृत्ति करने लगता है तो वह भी कर्मोका बन्ध ही करता है । लेकिन कोई बिरला मिथ्यादृष्टि भन्य जीव या सम्यमिथ्यादृष्टि जीव आराक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के सर्वथा त्यागके आधारसे कारणलब्धिके रूपमें आत्मोन्मुख हो जाता है तो वह वायोग्य कर्मोंका संचर और निर्जरण भी करने लगता है व अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के माम शुभ प्रवृति करता हुआ कर्मोंका आलव और बन्ध भी करता है। इसी प्रकार आसक्तिवश होनेवाली अशुभप्रवृत्ति के सर्वथा त्याग पूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय वा चतुर्थ गुणस्थानवी जीव यदि अभाक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृतिका भी एक देश त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोंके संबर और निर्जरणमें वृद्धि कर प्रथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के साथ शुभ प्रवृति के आधारपर कौका आस्रव और बन्द करता है। इसी प्रकार आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रथम, तृतीय, चतुर्थ या पंचम गुणस्थानवर्ती जीव यदि शक्तिवश होनेवाली प्रवृत्ति का यथायोग्य रावदेश त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोंके संघर और निर्जरणमें और भी वृद्धि करके यथायोग्य रूपमें विद्यमान अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्ति के साथ शुभ प्रवृत्ति के आधारपर कोका आस्रव और बन्ध करता है। इसी तरह आसक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिके सर्वथा त्यागपूर्वक आत्मोन्मुखताको प्राप्त प्रश्रम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम या षष्ठ गुणस्थानवी जीव यदि अशक्तिवश होनेवाली अशुभ प्रवृत्तिका सर्वथा त्यागकर अपनी आत्मोन्मुखतामें और भी वृद्धि कर लेता है तो वह यथायोग्य कर्मोके संघर और मिर्ज रणमें और भी वृद्धि करके क्रमशः सप्तम, अष्टम, नवम और दशम गुणस्थानों में पहुँचकर केवल आम्यन्तर शुभ प्रवृत्तिकै आधारपर कमोका आत्रव और बन्ध करता है। इसी तरह ऐसा दशम गुणस्थानवी जीव अन्तमें अपनी शुभ पुरुषार्थरूप प्रवृत्तिको भी समाप्त कर यथायोग्य आत्मोन्मुखताकी पूर्णताको प्राप्त होकर संघर और निर्जरणमें वृद्धिकर एफादा या द्वादश गुणस्थानमें और द्वादश गुणस्थानके पश्चात् योदा गुणस्थानमें केवल मानसिक, वाचनिक और काविक योगप्रवत्तिके आधारपर मात्र सातावदनीय कर्मका केवल प्रकृति और प्रदेश बन्धक रूपमें आस्रव और बन्ध करने लग जाता है और प्रयोदश गुण स्थानवर्ती जीवको जब उक्त योगप्रवृत्ति भी समाप्त हो जाती है तो वह चतुर्दश गुण स्थानके प्रारम्भ में पूर्ण संवरको प्राप्तकर तथा अन्त रामय में शेष विद्यमान अघातिया कर्मोंका भी क्षयके रूपमें पूर्ण निर्जरण करके नोकर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध समाप्त कर सिद्ध पदचीको प्राप्त हो आता है।

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