Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान की समीक्षा
सहारेपर न होकर उसके स्वयंको सहारेपर ही होता है तो ऐसा कहना सम्यक नहीं है, क्योंकि उसको जो पदार्थ ज्ञान मतिरूपमें और श्रुतरूपमें होते हैं वे यदि इन्द्रियों और मस्तिष्कके सहारेपर न होकर केवल उसके अपने ही सहारेसर होते हैं ऐसा माना जाये तो उनका इन्द्रियों और मस्तिष्कके अभावमें होनेका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । इस तरह सब उन्हें मतिशान और श्रुतज्ञान कहना हो असंगत हो जायेगा। इस आपत्तिको दूर करने के लिए यदि उन ज्ञानोंका कर्ता जीवको न मानकर इन्द्रियोंको और मस्तिष्कको ही माना जाये तो जड़ होनेके कारण इन्द्रियों और मस्तिष्कको उनका कत्ता मानना संभव नहीं होगा। प्रकार यही मानना था स्कर है कि उक्त दोनों प्रकार के ज्ञानोंका कर्ता तो जीव ही है, परन्तु वे ज्ञान जीवको इन्द्रियों और मस्तिष्कके सहारेपर ही होते हैं।
___इसी प्रकार यह भी अनुभवमें आता है कि जीव पौद्गलिक मनके सहारेसे संकल्प-विकल्परूप क्रिया करता है, पौद्गलिक वचनके सहारेसे बोलनेरूप क्रिया करता है और पौलिक शरीरके सहारेसे विशिष्ट प्रकारकी हलनचलनरूप क्रिया करता है । इसमें भी यदि यह कहा जाये कि ये सब क्रियायें जीवकी पौगलिक मन आदिके सहारेसे न होकर उसके स्वयंके सहारेपर ही होती है तो ऐसा कहना सम्पक नहीं है, क्योंकि उसकी जो संकल्प आदिरूप क्रियायें होती है वे यदि द्रव्यमान आदिके सहारेपर न होकर केवल उसके अपने सहारेपर होतो है ऐसा माना जावे तो पौदगलिक मन आदिके अभाव में भी उनको प्रसक्ति हो जायेगी । इस आपत्तिको दूर करनेके लिये यदि उन संकल्पादि क्रियाओंका कर्ता जीवको न मानकर द्रव्यमन आदिको हो उनका कर्ता माना जाय तो जड़ होनेके कारण उनका फी द्रव्यमन आदिको मानना संभव नहीं होगा। फलतः यही मानना श्रेयस्कर है कि वे सब संकल्प आदिरूप क्रियायें होती तो है जीवको ही, परन्तु वे पौद्गलिक मन आविके सहयोगसे हो हुआ करती हैं। अतः निर्णीत होता है कि द्रव्यमन, वचन और क्रायफे सहयोगपूर्वक संकल्प आदिके रूपमें पूर्वोक्त प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप क्रियायें जीयकी ही होती है। और वे जीवित शरीरको क्रियायें कहलाती हैं व उनसे जीवमें धर्म-अधर्म होते हैं ।
(४) उत्तरपक्षने आगे त० च० पू० ७९ पर यह कथन किया है--'प्रतिशंका २ द्वारा श्री तत्त्वार्थसूत्र आदिके उद्धरण देकर जो जीवित शरीरसे धर्मकी प्राप्तिका समर्थन किया गया है सो बह आस्रव का प्रकरण है। उस अध्याय में धर्मका निर्देश नहीं किया गया है। उसमें भी जहाँ कहीं निमित्तको अपेक्षा निर्देश मी हा है सो निमित्त तो अनेक पदार्थ होते है तो क्या इतने मात्रसे उन सबसे धर्मकी प्राप्ति मानी जावेगी। शरीर आदि पदार्थोको जहाँ भी निमित्त लिखा है सो यह विजातीय असद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षा ही निमित्त
कहा है।
इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि यह तो ठीक है कि तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ का कथन आस्रवके प्रकरणको ध्यानमें रखकर किया गया है। परन्तु जब उत्तरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म या अधर्म कुछ भी नहीं मानता है तो उसकी दृष्टि से वह जीवित शरीरको क्रिया आसबका भी कारण कैसे हो सकती है? पूर्वपक्ष तो यह मानता है कि जीवके महयोगसे होनेवाली शरीरको क्रियासे न तो धर्म होता है और न अधर्म ही होता है, परन्तु शरीरके सहयोगसे जो जीवकी क्रिया होती है वह यदि आसक्तिवश और अशक्तिवश होनेवाली संसार, कारीर और भोगों में प्रवृत्तिरूप है तो अधर्मका साधन है और यदि वह उक्त प्रकारको प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्ति के रूपमें निवृत्तिरूप है तो वह धर्मका साधन हो जाती है । यही कारण है कि तत्वार्थसूत्रके सप्तम अध्यायमें जहाँ अहिंसा आदिको प्रवृत्तिके रूपमें मालधका कारण माना गया है वहाँ