Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 377
________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा १. प्रश्नोत्तर २ को सामान्य समीक्षा पूर्वपक्षका प्रश्न-जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है या नहीं त.च० पृ०७६ । उत्तरपक्षका उत्तर---जीवित शारीरकी क्रिया पुद्गल द्रव्यमी पर्याय होने के कारण उराका अजीव तस्वमें अन्तर्भाव होता है, इसलिए वह स्वयं जीवका न तो धर्म भाव है और न अधर्मभाष ही है । त० च० ० ७६ । प्रश्न प्रस्तुत करने में पूर्वपक्षका अभिप्राय पूर्वपक्ष जीवित शरीरकी क्रियाले थात्मामें धर्म और अधर्म मानता है। अतः उत्तरपक्ष जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है, अतः उसने उत्तरपक्षके समक्ष प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया था । जीवित शरीरकी क्रियासे पूर्वपक्षका आशय जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकारकी होती है-एक तो जीवके महयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रिया और दूसरी शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया । इन दोनोंमसे प्रकृतमें पूर्वपक्षको शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवक्री क्रिया ही विनक्षित है, जीवके राहयोगगे होनेवाली शरीरकी क्रिया विवक्षित नहीं है। इसका कारण यह है कि धर्म और अमचे दोनों जीवकी ही परिणतियां है और उनके सुख-दुःख रूप फलका भोक्ता भी जीव ही होता है। अत: जिस जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म और अधर्म होते हैं उसका की जीवको मानना ही युक्तिसंगत है, शरीरको नहीं । उत्तरपक्षके उत्तरपर विमर्श उत्तरपक्षने प्रश्नका जो उत्तर दिया है उससे उसरपक्षकी यह मान्यता ज्ञात होती है कि वह जीवित शारीरकी क्रियाको मात्र पुदगलद्रकी पर्याय मानकर उसका अजीव तत्त्व में अन्तर्भाव करके उससे आत्मामें धर्म और अधर्म होनेका निषेध करता है। उत्तरपक्षकी इस मान्यतामें पूर्वपक्षको जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाकी अपेक्षा तो कुछ विरोध नहीं है, परन्तु आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्म के प्रति पूर्वपक्ष द्वारा कारण रूपसे स्वोवृत शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाकी अपेक्षा विरोध है । यदि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षको मान्य शारीरके सहयोगसे होनेवाली जीववी किया रूप जीवित शरीरकी क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसको पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानकर अजीव तत्त्वमें अन्तर्भूत करे तथा उरासे आत्मामें धर्म और अवर्मको उत्पत्ति न माने तो उसकी इस मान्यतासे पूर्वपक्ष गहमत नहीं है, क्योंकि चरणानुयोगका समस्त प्रतिपादन इस बातकी पुष्टि करता है कि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया जीवित शरीरकी क्रिया है और पुद्गल द्रव्यको पर्याय न होनेरो अजीव तत्त्वमें अन्तर्भूत न होकर जीवकी पर्याय होनेसे जीव तत्त्वमें अन्तर्भत होती है तथा उससे आत्मामें धर्म और अधर्म उत्पन्न होते हैं। उत्तरपक्षके समक्ष एक विचारणीय प्रश्न उत्तरपन यदि शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवक्री क्रियाको स्वीकार न करे या स्वीकार करके भी उसे पुदगल द्रव्यको पर्याय मानकर उसका अजीव तत्त्वमें अन्तर्भाव करे तथा उसको आत्मामें होनेवाले धर्म और अधर्म के प्रति कारण न माने तो उसके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मामें धर्म और अधर्मकी उत्पसिका आधार क्या है ! किन्तु पूर्वपक्षके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि वह शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवको कियाको आत्मामें होनेवाले धर्म और अघमके प्रति कारण रूपसे आधार मानता है। यदि उत्तरपक्ष यह कहे कि धर्म और अधर्मकी उत्पत्ति में आत्माका पुरुषार्थ कारण है, तो वह पुरुषार्थ शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीनको क्रियासे भिन्न नहीं है। इसका विवेचन आगे किया जायेगा। इसके

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