Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) सत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
खुलासा किया। अन्यत्र जहाँ-जहाँ कार्यकारणभावके प्रसंगमें यह गद आया है वहां-वहाँ इस गढका अर्थ करनेमें वही स्पष्टीकरण जानना चाहि।। यदि और गहराईसे विचार किया जाये तो यह पद निश्चयकतकि अर्थ में तो प्रयुक्त हुआ ही है इसके सिवाय इस पबसे अन्य निश्चय कारकोंका भी ग्रहण हो जाता है"।
___ इसकी समीक्षामें मेरा कहना पह है कि कार्यकारणभावके प्रमंगमें दोनों पक्षोंके मध्य पूर्वोक्त प्रबार विदादका विषय "स्वयमेव" पदका "स्वयं ही" या "आप ही" अर्थ करना नहीं है और न ही यह विवादका विषय है कि इस पदको प्रयोग निश्वयकर्ता आदि सभी कारकोंके अर्थ में होता है। पूर्वपक्ष को उत्तरप के साथ विवादका विषय यह है कि उत्तरपक्ष कार्यकारणभावके प्रसंगमें आये हुए "स्वयं" पदके आधारपर यह मान्य करता है कि उपादानमें कार्यको उत्पत्ति अपने आप अर्थात् निमित्तभूत जीवको सहायताके बिना हो होती है। इसकी पुष्टि उत्तरपक्षके त०१० पृ०७४-७५ पर निर्दिष्ट "यहां अपरपक्षने स्वयं पदफे 'अपने आप' अर्थका विरोध दिखलानेके लिए जो प्रमाण दिये हैं" इत्यादि वक्तव्य के अंशभूत "इस पदका 'अपने आप यह अर्थ अपर पक्षने हमारे कथनके रूप में प्रस्तुत प्रश्नकी दूसरी प्रतिशंका में मानकर टीका करनी THE वी जोमा नहीं है। हमने इसका विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्वयबर्ताक अर्धमें 'स्वयमेव' पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं है" इत्यादि कथनसे होती है। पूर्व पक्षको इस विषय में विवाद इसलिये है कि वह (पूर्वपक्ष कार्यकारणभावके प्रसंग में आये हा 'स्वयं' पदवे. यह मान्य करता है कि उपादान में कार्यकी उत्पत्ति निमित्तकारणभूत ब्राह्य वस्तुकी सहायताने ही होती है, परन्तु यह कार्य निमित्तभूत माह्य वस्तुरूप न होकर उगादानके अपने रूप अर्थात् उपादानगत कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होता है । प्रकृतमें भी उत्तरपक्ष कर्मरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट पुदगलके कर्मरूप परिणमनको स्वयं' पदके आधारपर अपने आप अर्थात निमित्तभूत जीवकी सहायताके बिना मान्य करता है जो पूर्वपक्षको विवादका विषय है, कोकि पूर्वपक्ष ऐसा न मानकर स्वयं पदवे आधार पर ही ऐसा मानता है कि कर्मरूप परिणत होनेकी स्वभाविक योग्यता विशिष्ट पुद्गलकी कर्मरूप परिणति निमित्त भूत जोरकी सहायतासे ही होती है. परन्तु वह जीवरूप न होकर पृद्गलके अपने रूप अर्थात् पुद्गलकी अपनी कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होती है । कथन ९९ और उसकी समीक्षा
(९९) स० च पृ० ७५ पर हो उत्तरपक्षने "आगे अपरपझने उपचार' पदके अर्थक विषयने निर्देश करते हए धवल पुस्तक ६ प०११ के आधारसे जो उस पदके 'अन्य के धर्मको अन्यमें आरोपित करना उपचार है' इस अर्थको स्वीकार कर लिया है वह उचित ही किया है"-इत्यादि अनुच्छेद लिखा है उसकी समीक्षा करनेसे पूर्व में यह बतलाना चाहता है कि उत्तरपक्षने प्रतिशंका दो का समाधान करते हुए तब पृ० १० पर उद्धृत घवल पुस्तक ६ पृ० ११ के 'मुह्यत इति मोहनीयम्' इस वषनका जो "जिसके द्वारा मोहित किया जाता है वह मोहमीय कर्म है' यह अर्थ किया है ग़लत है। उसका सही अर्थ 'जो मोहित किया जाता है या जो मोहित होता है यह मोहनीय है' यही है । इसे मैं प्रकृत प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरकी समीक्षामें स्पष्ट कर चुका हूँ। उस गलतीके आधार पर उत्तरपक्षने दूसरी गलती यह की है कि वह स० च० ० ७५ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त अनुच्छेदमें आगे यह कथन भी गलत कर गया है कि 'धवल पु० ६ १० ११ में जीवके कर्तृत्व धर्मका उपचार जीवसे अभिन्न (एक क्षेत्रावगाही) मोहनीय द्रव्य कर्म करके जीवको मोहनीय कहा गया है। इसमें गलतपना यह है कि उत्तरपक्षमे उपचार तो जीनक कर्तत्व धर्मका