Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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एक तो प्रस्तुत प्रश्न के प्रथम व दूसरे उत्तरमें हमने "स्वयमेव" पदका अर्थ "अपने आप” म करके "स्वयं हो" किया है। इस पदका "अपने आप" यह अर्य अपरपक्षने हमारे कथनके रूप में प्रस्तुत प्रश्नकी दूसरी प्रतिशंका में मानकर टीका करती प्रारम्भ कर दी है जो युक्त नहीं। हमने इसका विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्चय कर्त्ताक अर्थ में "स्वयमेव" पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं। ऐसी अवस्था में "अपने आप" पदका अर्थ होमा “परकी सहायताके बिना आप कर्ता होकर' । आशय इतना ही है कि जिसकी क्रिया अपने में हो कार्य अपने में हो वह दुसरेकी सहायता लिये बिना अपने कार्यका आप का होता है । अन्य पदार्थ नहीं"।
इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि यद्यपि उत्तरपक्षने प्रकृतमें "स्वयं'' पदका "स्वयं ही" अर्थ किया है, परन्तु वह उसका "अपने आप" के रूपमें ही आशय लेना चाहता था। यह बात उसीके "हमने
का विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्चयकर्ताक अर्थ में "स्वयमेव" पदका यह अर्थ ग्रहण करनमें भी कोई आपत्ति नहीं है" इस कथनसे जानी जाती है और इस बातको ध्यानमें रखकर ही पूर्वपक्षने अपने कथनमें "स्वयमेव" पदका उत्सरपक्षकी ओरसे "अपने आप" अर्थ मानकर उसकी टीका की है, इसलिये उसने जो पूर्वपक्षके कथनको अगुत्रत कहा है उराका यह कथन हो अयुक्त है । दूसरी बात यह है कि यदि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षकी उस टोकाको अयुक्त समझता था तो उसे वहींपर उसका विरोध करना चाहिये या और वहोंपर उसे 'स्वयं" पदके स्वय हो' अर्थका स्पष्टीकरण भी कर देना चाहिये था । यतः उत्तरपक्षने वहां पर न तो पूर्वपक्षके कथनका विरोध किया है और न "स्वयं' पदके "स्वयं ही' अर्थका स्पष्टीकरण ही किया है अतः मालूम होता है कि "स्वयं' पदका 'स्वयं ही" अर्थ करने में उसने छलसे काम लेना चाहा है। इस तरह मेरा कहना है कि उत्तरपक्षका यह प्रयत्न तत्त्व फलित करने की दृष्टि से उचित नहीं है।
उत्तरपक्षने अपने वक्तव्यमें जो यह कहा है कि "हमने इसका विरोध इसलिये नहीं किया कि निश्चपक के अर्थ में "स्वयमेव" पदका यह अर्थ ग्रहण करने में भी कोई आपत्ति नहीं। ऐसी अवस्था में "अपने आप" पदका अर्थ होगा "परकी सहायता के बिना आप का होकर", उत्तरपक्षने अपने इस कथन के स्पष्टीकरणके रूपमें आगे यह भी कहा है कि "आशय इतना ही है कि जिसको क्रिया अपने हो, कार्य भी अपनेमें हो वह दूसरे की सहायता लिये बिना अपने कार्यका कर्ती होता है अन्य पदार्थ नहीं" सो इसके विषयमें मेरा कहना है कि पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य विवाद भी इसी बातका रहा है कि जहाँ उत्तरपक्ष मानता है कि जिसकी क्रिया अपने में हो कार्य भी अपने में हो वह दूसरेकी सहायताके बिना अपने कार्यका कर्ता होता है, जबकि पूर्वगन मानता है कि जिसको त्रिया अपने हो, कार्य भी अपनेमें हो वह दूसरेकी सहायतासे अपने कार्यका कर्ता होता है । और इस विवादको समाप्त करनेकी दृष्टिसे ही तस्वचर्चामें प्रकृत प्रश्न प्रस्तुत किया गया था, लेकिन यह स्पष्ट है कि वह विवाद तत्वचर्चासे समाप्त नहीं हो सका, अतएव सस्वचर्चाकी इस समीक्षाको लिखनेकी ओर ध्यान देना पड़ा है। आशा है इससे दोनों पक्षों के मध्य उपत विवाद समाप्त हो जायेगा और यदि उक्त विवाद समाप्त न भी हो तो भी तत्वजिज्ञासुओंको तत्वका निर्णय करनमें इस समीक्षासे मार्गदर्शन अवश्य ही प्राप्त होगा। कथन ९८ और उसकी समीक्षा
(९८) अन्त में प्रवृत्त विषयका समापन करते हुए उत्तर पक्षने त० च० पृ० ७५ पर यह कथन किया है-"इस प्रकार प्रवचनसार माघा १६९ की टीका में "स्वयमेव' पदका क्या अर्थ लेना चाहिये इसका