Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
अपने परिणमन स्वभाव के आधारपर होता हुआ निमित्तभूत जीवको सहायता के बिना ही हुआ करता है । वहाँ पूर्वपक्ष "स्वयं" पदका "स्वयं ही" या "आप हो" अर्थ स्वीकृत करके उसका यह आशय ग्रहण करता है कि पुद्गल द्रव्यका कार्यरूप परिणमन उसके अपने परिणमन स्वभावके आधारपर होता हुआ भी निमित्तभूत जीant सहायतारो हुआ करता है । इनमेंगे पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत आय ही आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचंद्र के अभिप्रायके अनुकूल है, उत्तरपश्च द्वारा स्वीकृत आशय आचार्य कुन्दकुन्दके और आचार्य अमृतचंद्रके अभिप्रायके अनुकूल नहीं है ।
उत्तरपक्ष ने अपने इस वक्तव्यमें जो यह कथन किया है कि "उन गाथाओं में आये हुए "स्वयं" पदका जो मात्र " अपने रूप" अर्थ किया है वह ऐकान्तिक होनेसे ग्राह्य नहीं है" सो इसके संबंध में भी मेरा यह कहना है कि "स्वयं" पदका "अपने रूप" अर्थ कैसे ऐकान्तिक है और उस कारण से वह क्यों ग्राह्य नहीं है ? इस विषय पर भी उत्तरपक्षको प्रकाश डालना चाहिए था। मैं "स्वयं" पदके "अपने रूप" अर्थकी संगति और "अपने आप " अर्थकी विसंगतिके विषयमें पूर्व में ही विस्तार से प्रकाश डाल चुका हूँ ।
कथन ९५ और उसकी समीक्षा
( ९५ ) उत्तरपक्षनेत० च० पू० ७४ पर मागे 'स्वयं' पदके अर्थ विपयमें यह कथन किया है— "कत के अर्थ में उसका अर्थ "स्वयं ही" या "आप ही " कुछ करना संगत है और यह आगम विरूद्ध भी नहीं है"। इसके विषय में मेरा कहना यह है कि यह बात तो निर्विवाद है । परन्तु अपने इस कथन के समर्थनमें उसने (उत्तरपक्षने) आगे जो यह कथन किया है कि निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य आप कत्त होकर अपने परिणामको उत्पन्न करता है" सो यह विवादग्रस्त है, क्योंकि उत्तरपक्ष अब निश्चयनयके विषयको व्यवहारनय निरपेक्ष ही मान्य करता है तो ऐसी हालत में निश्चयनय नय न रहकर मिथ्यापनका रूप धारण कर लेता है - इस विषयपर भी मैं पूर्वमें विस्तारसे प्रकाश डाल चुका हूँ ।
कथन ९६ और उसकी समीक्षा
(९६) उत्तरपक्षने आगे अपने "कत कि अर्थ में उसका अर्थ "स्वयं ही" या " आप ही " करना संगत है" इस कथन के समर्थन में जो समयसार गाथा १०२ तथा हरिवंशपुराण सर्ग ५८ के श्लोक ३३ और ३४ को उद्धत किया है। सो उत्तरपक्ष इस सम्बन्धमें पूर्वपक्ष के दृष्टिकोणपर ध्यान देनेका प्रयत्न करता तो यह सब लिखनेकी उसे आवश्यकता ही नहीं रह जाती ।
मेरे द्वारा "स्वयं" पदको लेकर किये गये इस सम्पूर्ण विवेचनका अभिप्राय यह है कि "स्वयं" पदके अर्थ विषयमें जो कथन पूर्वपक्षने तत्त्वचर्चा में किया है उसपर उत्तरपा द्वारा ध्यान न दिये जानेका ही यह परिणाम है कि उसने उपर्युक्त निरर्थक और आगमके विपरीत प्रतिपादन किया है। तत्त्वजिज्ञासुओं को इसपर विचार करने की आवश्यकता है ।
कथन ९७ और उसकी समीक्षा
(९७) आगे त० च० पृ० ७४-७५ पर उत्तरपक्षने वह कथन किया है- "इससे प्रकृतमें "स्वयं" पदका क्या अर्थ होना चाहिए यह स्पष्ट हो जाता है" । तथा इसके अनन्तर उसने यह कथन भी किया है कि "यहां अपरपक्षने "स्वयं" पवके "अपने आप " अर्थ का विरोध दिखलाने के लिए जो प्रमाण दिये हैं उनके free सो हमें विशेष कुछ नहीं कहना है, किन्तु यहाँ हम इतना संकेत कर देना आवश्यक समझते कि