Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
१८२
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा "यह परमागमको स्पष्टोक्ति है जो निश्चयपक्ष और व्यवहारपक्षके कथनका आशय क्या है ? इसे विशद रूपसे स्पष्ट कर देती है । निश्चयसे देखा जाये तो प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभाव वाला होनेसे उत्पादव्ययरूप परिणमनको अपने में, अपने द्वारा, अपने लिये, आग ही करता है । उसे इसके लिए पर की सहायता की अणु मात्र भी अपेक्षा नहीं होती । यह कथन वस्तु स्वरूपको उद्घाटन करनेवाला है, इसलिये वास्तविक है, कथनमात्र नहीं है। व्यवहारनयसे देखा जाये तो कुम्भकारके विवक्षित क्रियापरिणामके समय मिट्रीका विवक्षित क्रियापरिणाम दृष्टिपथमें आता है। यतः कुम्भकारका विवक्षित क्रियापरिणाम मिट्रीके घट परिणामकी प्रसिद्धिका निमित्त (हेत) है. अतः इस मयसे कहा जाता है कि कुम्भकारने अपने क्रियापरिणाम द्वारा मिट्टीमें घट किया । अतः यह कथन वस्तुस्वक्तपको उद्घाटन करने वाला न होकर उसे आच्छादित करनेवाला है। अतः वास्तविक नहीं है, धनमात्र हैं। परमागममें निरच्यको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य क्यों बतलाया गया है ? यह इससे स्पष्ट हो जाता है।
इसकी समीक्षामें मैं यह बाह्ना चा:ता हूँ कि पूर्वपक्षको उस रपक्षके साथ समयसार ११८ से १२० तककी गाधाओंकी आचार्य अमचन्द्र कुत टीका और उसके पं० जयचन्द्र जी कृत हिन्दी अर्थके विषयमें कोई विवाद नहीं है 1 किन्तु उनके आधारपर उत्तरपक्षने जिस रूपमे निश्चयनय और व्यवहारनयके कथनका आशय व्यक्त किया है वह सम्ध नहीं है । इसका कारण निम्न प्रकार है ।
__पहले यह स्पष्ट किया जा चुका है कि निश्चयनय और व्यवहारमय दोनों परस्परको सापेक्ष ताके आधारपर ही नय कहे जाते है । यदि ऐसा न हो तो दोनों मिथ्या हो जायेंगे। इसलिये जिस प्रकार निश्चयनयका विषय सदरूप है उसी प्रकार व्यहारनयका विषय भी सदरूप ही है। वह कल्पित नहीं है। इतना अवश्य है कि निश्चयनय वस्तूक स्वाश्रित रूपको विषय करता है और व्यवहारनय वस्तु के पराश्रित रूपको विषय करता है । पर जिस प्रकार बस्तुका स्वाथित रूप सद्रूप है उसी प्रकार वस्तुका पराश्रित रूप भी सद्प ही है।
तात्पर्य यह है कि पुद्गलका जो वार्मरूप परिणमन होता है वह पुद्गलका ही परिणमन है, क्योंकि पुद्गल ही अपनी कार्यरूप परिणत होने की स्वतःसिद्ध स्वाभाविक योग्यताके अनुसार कर्मरूपसे परिणत होता है और यही कारण है कि वह स्वरूप होनेसे निश्चयनयका विषय है। परन्तु पुद्गलका वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवके सहयोगने ही होता है, जीवके सहयोगके बिना अपने आप कदापि नहीं होता। इसलिये पुद्गलका कर्महप परिणमन जीवके ग्रहयोगाधित होमेसे यह व्यवहारनयका विषय है. निश्चयनयका नहीं। इस तरह निदचय और व्यवहारनयोंकी परस्पर सापेक्षता सिद्ध होनेने उत्तर पक्ष के उक्त वक्तव्यका "निश्चयनयरो देखा जाये" यहाँसे लेकर “यतः यह कथन वस्तुस्वरूपको उद्घाटन करनेवाला न होकर उसे आच्छादित करने वाला है, अतः वास्तविक नहीं है, कथन मात्र है।" यहाँ तकका सम्पूर्ण कथन ऐकान्तिक होने से मिथ्या है।
इस विवेचनसे उत्तरपक्षके उक्त वक्तव्यका "परमागममें निश्चयको प्रतिपंधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य क्यों बतलाया गया है ? यह इमने स्पष्ट हो जाता है।" यह कथन भी एकान्तदृष्टिगरक होनेसे मिथ्या है । पूर्व में भी में स्पष्ट कर चुका है कि व्यवहारनय निश्चयनयका इसलिये प्रतिषेध्य नहीं है कि वह सर्वथा असदुरूप पदार्थको विषय करता है अपितु इमलियं प्रतिषेध्य है कि व्यबहारनयका विषम सद्रूप होकर भी निषचयनयका विषय जिस रूपसे सद्रूप है उस रूपमें सद्प न होकर उससे पृथक् रूपमें ही सदरूप है । जैसे