Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताको पूर्वपक्षकी तरह स्वतः सिद्ध मानता हुआ भी उसके आधारपर होनेवाले पुद्गल के कर्मरूप परिणमनको भी निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप हो मानता है । अतएव इसका निषेध करनेके लिए पूर्वपक्षनेत० ० पृ० ३७ पर "गाथा ११७ के उत्तरार्ध में" आदि उक्त कथन किया है। इसके अतिरिक्त यह कहना चाहता हूँ कि के उक्त कथनमें उसके इस अभिप्रायको न समझ सकने के कारण ही उत्तरपक्ष ने अपने कथनमें " किन्तु यह आपत्ति इसलिए ठीक नहीं" आदि आका अंश
लिखा है, जो पूर्वपक्षी ही दृष्टिको स्पष्ट करता है ।
पूर्वपक्षनेत० १० २२-३० पर समयसार ११६ से १२० तक की गाथाओंका उल्लेख प्रवचनसार गाथा १६९ के समर्थन में किया है। अतः वहां पर भी उसने उसका यही अर्थ ग्राह्य माना है और इसकी पुष्टिके लिए उन गाथाओंका आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाके आधारपर स्पष्टीकरण किया है।
सामान्यतः दोनों पक्षों में इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि पुद्गलका कर्मरूप ही परिणमन होता है, क्योंकि उसमें उस रूपसे परिणत होने की स्वाभाविक योग्यताका सद्भाव दोनों ही पक्ष स्वीकार करते है । विवाद केवल उनमें इस बात का है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुद्गलके उस कर्मरूप परिणमनको निमित्तभूत जीवके सहयोगसे मानता है वहाँ उत्तरपक्ष पुद्गलके उस कर्मरूप परिणमनको निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप ही मानता है। यहाँ ध्यातव्य है कि आचार्य अमृतचन्द्र कृत समयसारकी टीका कलश १७५ में परद्रव्यको निमित्तताका स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। वह कलश निम्न प्रकार है।
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न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥
इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सूर्यकान्त मणि अपनी रक्तादि परिणतिका आप निमित्त कभी नहीं होता उसी प्रकार आत्मा भी अपनी रामादि परिणतिका आप निमित्त कभी नहीं होता । किन्तु जिस प्रकार सूर्यकान्तमणिके रक्तादि परिणमनमें रक्तादि परद्रव्यका संग ही निमित्त होता है उसी प्रकार आत्माके रागादि परिणमनमें भी रागादि परद्रश्यका संग ही निमित्त होता है, वास्तव में यह वस्तुका स्वभाव है ।
यतः सांख्यमतानुयायी वस्तु के स्वतः सिद्ध परिणमन स्वभावको अर्थात् वस्तु में परिणमन होने की स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यताको स्वीकार नहीं करता है, अतः समयसार गाथा ११६ में यह बतलाया गया है कि यदि पुद्गल द्रव्य जीवके साथ 'स्वयं' अर्थात् अपनी बद्ध होने की स्वतः सिद्ध स्वभाविक योग्यता के आधारपर बद्ध नहीं होता और स्वयं अर्थात् अपनी कर्मरूपसे परिणत होने की स्वतः सिद्ध स्वभाविक योग्यता के आधारपर कर्मरूपसे परिणत नहीं होता अर्थात् पुद्गलमें जोवके साथ बद्ध होने और कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वतःसिद्ध स्वभाविक योग्यता विद्यमान नहीं है तो उस हालत में पुद्गल द्रव्य अपरिणामी ( कूटस्थ ) ही ठहरेगा | इसके पश्चात् समयसार गाथा ११७ में यह बतलाया गया है कि पुद्गल द्वय समयसार गाथा ११६ के कनके अनुसार जब अपरिणामी ( कूटस्थ ) हो जायेगा वो उसके कर्मरूप परिणत न होने के कारण संसारका अभाव अथवा सांख्यमतकी प्रभक्ति उपस्थित हो जायेगी, जो जिनशासन के प्रतिकूल होने के कारण दोनों पक्षोंको अभीष्ट नहीं है ।
अब यहाँ विचारणीय हैं कि यद्यपि दोनों पक्ष पुद्गल के कर्मरूप परिणमनको उसकी कर्मरूप परिणत होनेकी स्वतः सिद्ध स्वभाविक योग्यता के आधारपर स्वीकार करते हैं, परन्तु जहाँ पूर्वपक्ष पुद्गल कर्म