Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
उसने यह कथन पूर्वपक्ष के त० ० ० २८ पर निर्दिष्ट "हमने अपनी दूसरी प्रतिशंकामें यह स्पष्ट किया था कि प्रवचनसार गाथा १६९ तथा उसको श्री आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें जो "स्वयं" शब्द आया है उसका अर्थ " अपने आप' न होकर "अपने रूप" ही है। इस कथन की और पूर्वपक्ष ही तु० च० १० २९ पर निर्दिष्य" इस विषय में हमारा यह कहना है कि "स्वयमेव" पद कुन्दकुन्द स्वामीके मन्थोंमें जहाँ भी कार्य-कारणभाव के प्रकरण आया है वहाँ सर्वत्र उसका अर्थ "अपने रूप" अर्थात् "स्वयंकी वह परिणति है" या "स्वयंगे ही वह परिणति होती है" ऐसा करना चाहिए बिना सहकारी कारणके अपने आप यह परिणति होती है ऐसा कदापि संगत नहीं हो सकता है ।" इस कथन की आलोचना करते हुए किया है।
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आगे उत्तरपक्ष के उक्त कथन की समीक्षा की जाती है
यतः उत्तरपक्ष उपादानभूत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्तभूत वस्तुको सर्वथा अकिंचित्कर मानता है, अतः व प्रवचनारगाथा १६९ की आचार्य अमृतमन्द्र कृत टीकामें आये हुए "स्वयं" पदका अर्थ "स्वयं" करके यह दिखलाना चाहता था कि कर्मत्व शक्तिके धारक मुद्गल स्कंध "स्वयं" भर्यात् निभिभूत जीवकी सहायता के बिना अपने बाप ही कर्मरूप परिणत होते हैं ।
यतः पूर्वपक्ष उपादानभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति में निमित्तभूत वस्तुको सहायक होने रूपसे कार्य - कारी मानता है, अतः वह प्रवचनसार गाथा १६९ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें आये हुए "स्वयं" पदका अर्थ "अपने रूप" करके यह बताना चाहता है कि कर्मस्व शक्तिके वारक पुद्गल स्कंध यद्यपि निमित्तभूत जीवकी सहायता से कर्मरूप परिणत हुआ करते हैं, परन्तु उनकी वह कार्यरूप परिणति निमित्त - भूत जीवके अनुरूप न होकर उनमें विद्यमान कर्मरूपसे परिणत होनेकी शक्ति के अनुरूप ही हुआ करती है ।
तात्पर्य यह है कि प्रवचनसार गाथा १६९ में पठित "स्वयं" पदका दोनों पक्षोंने जो अपने-अपने ढंगसे पृथक्-पृथक् अर्थ स्वीकार किया है उसके आधारपर दिये गये उपर्युक्त स्पष्टीकरणसे ज्ञात होता है कि दोनों पक्षोंके मध्य इस बात की तो समानता है कि कमरूपसे परिणत होनेकी योग्यता धारक पुद्गल स्कंध ही कर्मरूप परिणत हुआ की हैं। परन्तु उक्त स्पष्टीकरणये यह भी ज्ञात होता है कि उत्तरपक्ष "स्वयं” पदका "स्वयं" अर्थ करके अपनी इस गाम्यताको पुष्टि कर लेना चाहता है कि कर्मरूप परिणत होनेकी योग्यता के वारक पुद्गल स्कंध अपने आप" अर्थात् "निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना ही कर्मरूप परिणत होते हैं। इसके विपरीत पूर्वपक्ष "स्वयं" पदका "अपने रूप" अर्थ करके अपनी इस मान्यताकी पुष्टि करता है कि कर्मरूप परिणत होनेकी योग्यताके धारक पुद्गल स्कंध निमित्तभूत जीवके सहयोगपूर्वक अपनी उस योग्यता अनुरूप ही कर्मरूप परिणत होते हैं ।
अब देखना यह है कि प्रवचनसार गाथा १६९ और उसको आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकासे क्या उत्तरपक्षकी मान्यताका समर्थन होता है या कि पूर्वपक्ष की मान्यताका ? इसका निर्णय करनेके लिए मैं यहाँपर उक्त गाथा और उसकी टीकाको उद्धृत करता है
गाथा -कम्मत्तणपाओग्या खंधा जीवस्स परिदि मया । गच्छति कम्मभावं न हि ते जीवेण परिणमिदा ॥ १६९ ॥