Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 361
________________ ૨૪ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा पदोंकी सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है। पुद्गलोंका कर्मरूप परिणत होना कार्य है और उसमें उपादान स्वयं पुद्गल है और निमित्त उसमें जीवपरिणति है । 'स्वयं' का अर्थ 'अपने आप' करनेपर जो परिणति मुगलोंके कर्मरूप परिणयन में कारण (निमित्त) नहीं हो सकेगो और उस हालत में गाथा व टीकाके उक्त पद निरर्थक हो जायेंगे। अतः 'स्वयमेव' पदका अर्थ 'अपने रूप ''अपनी कर्मशक्ति के अनुरूप यहो युक्त एवं संगत है। कथन ८६ और उसकी समीक्षा सर्व (८६) त० च० पृ० ७१ पर ही उत्तरपक्षने यह कहा है कि "अपरपखने इसी प्रसंग समयसारको ११६ से १२० तकको गाओंको उपस्थित कर उन गाथाओं की अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न होने के वह आर्य कुन्दकुन्द इन गाथाओं द्वारा परिणामस्वभावको सिद्धि कर रहे हैं. अपने शाप (स्वतः सिद्ध) परिणामस्वभावकी सिद्ध नहीं कर रहे हैं । किन्तु अपरपक्ष इस बात को भूल जाता है कि जिसका जो स्वभाव होता है वह उसका स्वरूप होनेसे स्वतः सिद्ध होता है. इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र ने उन गाथाओंकी अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न देकर प्रत्येक द्रव्यकी स्वतःसिद्ध स्वरूपस्थितिका हो निर्देश किया | अतएव अवतरणिकाके आवार से अपरपक्षने जो यह लिखा है कि उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तु परिणामी स्वभावकी सिद्धि करना ही आचार्यको अभीष्ट रहा है। अपने आप परिणामी स्वभावकी नहीं' यह युक्त प्रतीत नहीं होता । " खेदकी बात है कि उत्तरपक्ष अपनी मान्यताको पूर्वपक्षपर लादनेका अनुचित प्रयास करता है और उसके कथनका विपर्यास करता है । पूर्वपक्षनेत० च० पृ० ३० पर वस्तुके परिणामी स्वभावको सिद्ध करनेवाली आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारकी ११६ मे १२० गाथाएँ उद्धृत कर तथा इन गाथाओंकी अमृतचन्द्रकृत टीकागत अवतरणिकाके, जिसमें 'स्वयं' पद नहीं दिया हुआ है, आधारसे लिखा था कि 'उक्त गाथाओं द्वारा केवल वस्तु परिणामी स्वभावकी सिद्धि करना हो आचार्यको अभीष्ट है, अपने आप परिणामी स्वभावको नहीं' और इसका स्पष्टीकरण वहाँ आगे किया गया है। किन्तु उत्तरपक्षने पूर्वपक्ष के इस कथन में प्रयुक्त 'अपने आप' पक्षका ब्रैकेट में 'स्वतः सिद्ध' पर्यायशब्द अपनी ओर जोड़ कर पूर्वपक्ष के कथनको विकृत करनेका प्रयत्न किया है। सांख्य आत्मा ( पुरुष ) को अपरिणामी मानता है, यह सर्वविदित है। आचार्यने उक्त गाथाओं द्वारा आत्माको परिणामी सिद्ध किया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जीवमें पुद्गलद्रव्य अपने रूपसे बंधा है और उसकी अपने रूपये कर्मरूप परिणति होती हैं। यदि ऐसा न हो तो जीव अपरिणामी (चतुर्गतिके भ्रमण से रहित ) हो जावेगा । इस प्रतिपादन से विदित है कि आचार्यको यह अभिप्रेत है कि जीवके साथ पुद्गलद्रव्य उसमें कर्मरूप परिणत होनेकी योग्यता होनेसे पूर्व मे बंधा है और उसमें कर्मरूप परिणमनेकी योग्यता होनेसे ही वह कर्म (ज्ञानावरणादि) रूप परिणमता है। यहाँ माचार्यको 'कर्मरूप परिणमनेकी योग्यता' हो 'स्वयं' दशन्दसे विवक्षित है, जिसका सीधा अर्थ 'अपनेरूक' है, अपनेआप जीवको परिणतिरूप निमित्तनिरपेक्ष अर्थ विवक्षित नहीं है । यह पूरे सन्दर्भसे अवगत हो जाता है। आचार्य अमृतचन्द्रकी इन्हीं गाथाओं की टोकाकी अवतरणिकासे भी ज्ञात होता है, जैसाकि उल्लिखित उद्धरण के पूर्वपक्ष द्वारा किये गये अर्थसे प्रकट है। फिर भी उत्तरपक्ष पूर्वपक्षको उलझानेका अराफल प्रयास करता है। किन्तु तथ्य क्या है, इसे तत्त्वजिज्ञासु अच्छी तरह समझ सकते हैं। हमारी रोष्टा है कि उत्तरपक्ष भी गहराईसे इसपर विमर्श करे । एक बात हम और कहना चाहते हैं कि उत्तरपक्ष समझता है कि 'जिसका जो स्वभाव होता है वह

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