Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१७३ कहना अर्थात् कुम्भका कर्ता मानना तो गिथ्या नहीं है, परन्तु उसे मिट्टीकी तरह कुम्भरूप परिणत होने रूपसे कुम्भकार अथति कुम्भका कत्ती गानमा मिथ्या है।
इन उदाहरणोंसे निर्णीत होता है कि उपचरित या आरोपित वस्तु उपत्तरित या आरोपित रूपमें सद्रूप ही है, आकाश कुरामकी तरह कल्पनारोपित या कथनमान नहीं है, क्योंकि उसको उगपरित या आरोपितरूपसे लोकमें उपयोगिता निविवाद है। अर्थात लोकव्यवहार होता है और वह अपने रूपसे यथार्थ है। कथन ८५ और उसकी समीक्षा
(८५) आगे चलकर तन० प्र० ७१ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है--"अगरपक्षने प्रवचनसार गाथा १६९ की उक्त टीकाके आघारसे यह चनों दलाई है। उसमें पुद्गलस्वान्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति" यह वाक्य आया है जिसका अर्थ होगा-"पद्गलस्वान्घ स्वयं ही कर्मरूपसे परिणम्न है।" जैसा कि अपरपक्षका कहना है उसके अनुसार यह अर्थ कदानि नहीं हो सकता कि "पुदगलस्बन्ध अपने रूप कर्मरूपसे परिणमते है ।" क्योंकि ऐसा अर्थ करने पर "अपनेरूप" तथा "कर्मापसे" इन दोनों बचनामें से एक वचन पुनरुक्त हो जाता है ।''
__ इसके सम्बन्धमें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षका यह कथन न केवल भ्रमपूर्ण है, अपितु मिथ्या भी है, क्योंकि टीकाके उक्त दोनों वचनोंका पूर्वपश्च द्वारा किया गया अर्थ मंगत हैं और दोनों वचन भिन्नायक है । दोनोंके किये अर्थों-'पुद्गलस्कन्ध अपने रूप कर्मरूपसे परिणमते हैं'--का अभिप्राय है कि 'गुद्गलस्कन्ध' 'अपने रूप' अर्थात अपनी स्वाभाविक कमवशक्तिके अनुरूप करूागे' परिणम है। इस तरह 'अपनेख्य और 'कर्मलपस' ये दोनों वचन भिन्न-भिन्न अभिप्रायको प्रकट करते हैं। अतः इनमेंसे कोई भी वचन पुनरुक्त नहीं है-दोनों ही अपुनरुक्त है।
इसका और भी खुलासा इस प्रकार है। पूर्वपशके कथनमें प्रवचन सारयो उक्त टीकामे आये 'स्वयं' पदका जो 'अपने रूप' अर्थ किया गया है उससे पुदगल कन्चोंकी कर्गरूप परिणत होनेको स्वभावभूत योग्यता सूचित की गयी है और कर्मभावेन' पदका जो 'वार्मरूप' अर्थ दिया गया है, उसमे उस योग्यताके आधारपर होनेवाली उन पुद्गलस्कन्धोंकी कर्मरूप परिणतिको बतलाया गया है। दोनों वननोंक अोंका अभिप्राय अलग-अलग है। अतः दोनों ('अपनेरूप' और 'कर्मफप') वचनोंका प्रयोग पुनरुक्त नहीं है। उन्हें पुनरुक्त समझना या बताना अपरपशका मात्र भ्रम है।
एक बात और है। यदि उत्तरपक्षकी मान्यता अनुसार 'पुद्गल स्कंधाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति' इस वाक्यमें आये स्वयंका अर्थ 'अगने आष' स्वीकार किया जाये, तो 'स्वयमेव' पद 'अपने आप अर्थात् निमित्तभुत जीवके सहयोगले बिना' अर्थका बोधक होनेसे पुद्गलक कर्मरूप परिणमन में जीवकी परिणति अकिंचित्कर मिद्ध होती है। फलतः उक्त गाथामें पठित 'जीवस्य परिणदि पप्पा' पद और उसके अर्थ के रूपमें टीकामें अभिहित 'तुल्यक्षेत्रावगाढ़ जीवपरिणाममात्र बहिरंगसाधनमाश्रित्य' पद दोनों निरअंक सिद्ध होते हैं । इसके विपरीत उक्त वननोंका यदि पक्ष द्वारा स्वीकृत अर्थ किया जाये, तो 'स्वयमेव' पद 'अपने रूप' अर्थात 'अपनी बर्मस्वशक्ति के अनुरूप' वर्गका बोधक होनेसे पुद्गलके कर्मरूप परिणमनमें जीवकी परिणति मिराबाध एवं अनिबार्य सहायक होनेसे कार्यकारी सिद्ध होती है तथा दोनों (गाथा व टीकाके)