Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१७५ उसका स्वरूप होनेसे स्वतः सिद्ध होता है, इसलिये आचार्य अमृत चन्द्रने उन गाथाओंकी अवतरणिकामें 'स्वयमेव' पद न देकर प्रत्येक द्रब्बकी स्वतः सिद्ध स्वरूप स्थितिका निर्देश किया है ।" किन्तु उसका ऐसा समाना निताई क्योंनि र एरो लेगरी प्रत्येल टाकी स्वरूप स्थितिका निर्देश हो सकता था । वास्तवमें 'स्वयमेव' पद न देनेका जो अर्थ या आशय उत्तरपक्षने रामझा है वह उसकी अपनी कल्पना है। सच तो यह है कि यहां उसके बतानेका प्रसंग ही नहीं है। प्रसंग तो द्रव्यके परिणामीस्वभावको सिद्ध करनेका है, जिसे आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार अमृतचन्द्र ने द्रव्यको सहेतुक एवं अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक परिणामीस्वभाव सिद्ध किया है तथा सांस्यादिक अपरिणामी आदि स्वभावका निरसन किया है। स्पष्टतया दोनों ही आचार्वाका अभिप्राय जीवमें बंधे पुदगल द्रव्यको तथा आगामीकालमें बंधनेवाले पुद्गलद्रव्यको कर्मरूपसे परिणमन करनेवाला मिह करता है और वह कर्मरूपसे परिणत तभी होगा, जब उसमें कर्मरूप परिणत होनेको स्वभावभूत योग्यता होगी। इसी भावको व्यक्त करने के लिए स्वयं' पद गाथाओंमें दिया गया है। यह अवश्य है कि स्वरूप स्वतः सिद्ध होनेपर भी उसकी अभिव्यक्ति तो उभय कारणोसे ही होती है। केवलज्ञान जीवका स्वत: सिद्ध स्वरूप है, किन्तु उसकी व्यक्ति अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारणोंसे होती है। यहाँ दुख्यको परिणामीस्वभाव सिद्ध करने से उस परिणमन में कार्यकारणभाव बताना ही मुख्य अभिप्रेत है, स्वतः सिद्ध स्वरूपका निर्णय करना नहीं। उसका यहां प्रकरण ही नहीं है। फिर वह तो स्वतः सिद्ध है ही। इसपर उत्तरपक्षको गंभीरतासे विचार करना चाहिए ।
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इसका खुलासा इस प्रकार है। पूर्वपक्ष पुद्गलकी कर्मरूपसे परिणत होनेकी पाक्ति अवश्य उसकी स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्ति मानता है। किन्तु वह यह भी कहता है कि उसके आधारपर होनेवाला उसका कर्मरूप परिणमन जीवके रागादि परिणामोंका सहयोग मिलनेपर ही होता है। उसका वह कर्मरूप परिणमन न तो पुद्गलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्तिके अभावमें हो सकता है और न जीवके रागादि परिणामों के सहयोगके बिना हो सकता है। पुद्गलके कर्मरूप परिणमनमें सक्त दोनोंका सद्माव नियमसे कारण होता है। आचार्य अमृतचन्द्रने आचार्य कुन्दकुन्दकी उल्लिखित (११६-१२०) गाथाओंके अर्थको भी अपनी टीकामें स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यदि पुद्गलद्रव्य जीवके साथ स्वयं अर्थात् अपनी कर्मरूपसे परिणत होनेको स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्तिके अनुरूप कर्मरूपसे परिणत नहीं होता यानी पुद्गल में यदि जीवके साथ बद्धता या कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वतः सिद्ध स्वभावभूत शक्ति विद्यमान नहीं है तो वह पुद्गल द्रव्य अपरिणामी (कटस्थ) हो जावेगा। अर्थात ऐसी स्थिप्तिमें वह न तो जीवके सा बद्ध हो सकेगा और न कभी कर्मरूपमे परिणत ही हो सकेगा। इस तरह कार्माण वर्गणाओंके कर्मरूपसे परिणत न होनेपर संसारका अभाव हो जायेगा। अर्थात् जीवबा चतुर्गति परिभ्रमण नहीं होगा । अथवा सांख्यमत प्रसक्त हो जायेगा। यदि कहा जाय कि जीव पुदगलद्रव्यको कर्मरूपसे परिणभाता है, अतः संसारका अभाव नहीं होगा-युगलद्रग (प्रकृति) का दन्ध-संसार सिद्ध हो जायगा। इसपर प्रश्न होता है कि परिणमते पुद्गद्रदपको जीव परिणमाता है या अपरिणमते पुद्गल ब्रम्पको यह कर्मरूपसे परिणमाता है ? प्रथमपक्ष तो इसलिए युक्त नहीं है, क्योंकि जब पुद्गलद्रव्य स्वयं-कर्मरूप परिणभनेकी योग्यतासे कर्मरूप परिणमेगा तो दूसरे परिणमानेवाले जीवकी वह क्यों अपेक्षा करेगा। द्वितीय पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि जो कर्मरूप परिणमनेकी योग्यताके अभावसे परिणम नहीं रहा है वह उसके अभाव में जीषके द्वारा भी परिणमाया नहीं जा सकता। प्रसिद्ध है कि 'जो शक्ति स्वतः नहीं है वह अन्यके द्वारा नहीं लायी जा सकती।'
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