Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 359
________________ १७२ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा व्यवहारनयके विषयसे निरपेक्ष होनेके कारण बह निश्चयनयनय न रहकर मिथ्या हो जाता है, क्योंकि उत्तरपक्षने अपने बनव्यमें स्पष्ट लिखा है कि "इसमें परका अणुमात्र भो योगदान नहीं होता।" इस कथनसे उसके मतमें निश्चयनय व्यवहारनय निरपेश होने के कारण निश्चयनय नय न रहकर मिथ्या हो जाता है ! अतः उसके द्वारा ऊपर जिस रूपमें निदचयनयका विषय माना गया है वह आगमसम्मत नहीं है। इसी तरह जो दार्शनिक एक द्रव्यको क्रियाको उस में तदनुकूल योग्यताका अभाव रहते हए के बल परसे मानते हैं उनके मतमें व्यवहारनयका विषय निश्चयनयके विषयस निरपेक्ष हो जाने के कारण उसका प्रतिपादष व्यवहारनय भी नय न रहकर मिथ्या हो जाता है; ऐसा जानना चाहिए । उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि "असद्भूत व्यवहारनयसे परसापेक्ष कार्य होता है यह कहना अन्य बात है, किन्तु इस कथनको परमार्थ रूप नहीं मानना चाहिए ।' सो इसके विषयमे मेरा कहना यह है कि असद्भूतव्यवहारनयका विषय उपयुक्त प्रकार निश्चयनयके विपयके रूपमें भले ही परमार्थ रूप न हो, परन्तु उपयुक्त प्रकार हो अराद्भूतव्यवहारनपके विषको रूपमै तो वह परमार्थभूत ही है । अर्थात् “एक द्रव्यकी क्रिया दूसरा द्रव्य नहीं करता" इस रूपमें तो वह परमार्थभूत ही है, क्योंकि एक द्रव्यको क्रियामें दूसरे द्रव्य का सहयोग कल्पनारोपित मात्र या कथन मात्र नही होता है, यह नहीं भूलना चाहिए। कथन ८४ और उसकी समीक्षा (८४) उसी वक्तव्यमें आगे चलकर. उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि ''यही कारण है कि समयसारमें सर्वत्र व्यवहारपक्षको उपस्थितकर निश्चयनय के कथन द्वारा असत्' कहकर उसका विरोध कर दिया गया है । कार्य-कारणभावमें इसी पद्धतिको अपनाया गया है। सो उसका यह लिखना सर्वथा भ्रमपूर्ण है, क्योंकि समयसारमें जहाँ भी व्यवहारपक्षको उपस्थित कर निश्चयनयके कथन द्वारा उसका निषेध किया गया है वहाँ ग्रंथकारका यही आशय है कि जो लोग व्यवहारपक्षको निश्चयपक्ष समझकर व्यवहारविमूढ़ हो रहे हैं उनकी यह व्यवहारविमूढ़ता समात हो जाये । उसमें ग्रंथकारका अभिप्राय व्यवहारपक्षको सर्वथा असत्य सिद्ध करनेका नहीं है । तात्पर्य यह है कि व्यवहार व्यवहाररूपसे तो मदरूप ही है, परन्तु उस जिसने निश्चयरूप समझ रखा है उसकी यह भ्रान्ति है और इसो भ्रान्तिको समाप्त करनेके लिए ही समयसारमें उक्त कथन किया गया है । आगे उदाहरणों द्वारा इस कथनको स्पष्ट किया जाता है (१) बालकको सिंह सदृश गुणोंके आघारमे उपवरित या आरोपित सिंह मानना तो मिथ्या नहीं है, परन्तु उसे उसरूपसे वास्तविक सिंह मान लेना मिथ्या है। (२) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके अणुओंके पिण्डरूप स्वन्धको उपचरित वस्तु मानना तो मिथ्या नहीं है, परन्सु उन्हें अणुओंके समान स्वतः सिद्ध रूपमें यथार्थ वस्तु मानना मिथ्या है । (३) बीका आधार होने के कारण मिट्टीके घड़ेको घोके घड़े के रूप में उपवरित या आरोपित बड़ा मानना मिथ्या नहीं है, परन्तु उसे मिट्टीसे निर्मित पड़ेके समान पीसे निर्मित पड़ेक रूपमें घीका मानना मिथ्या है। (४) कुम्भकार व्यक्तिको मिट्टीकी कुम्भरूप परिणति में सहायक होलेके कारण उपचारसे कुम्भकार

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