Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
होता । अतः समयसारमामा १६९ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकामें "स्वयं" पदका पूर्वपक्षको मान्य "अपने रूप" अर्थ ही संगत है, उत्तरपक्षको मान्य "अपने आप " अर्थ संगत नहीं ।
कथन ८२ और उसकी समीक्षा
(८२) ० ० ० ७० पर ही आगे उत्तरपक्षने लिखा है कि "इस प्रकार अपरपक्षके इस कथन मालूम पड़ता है कि वह पक्ष उत्पाद-यौव्यरूप प्रत्येक सत्को उत्पत्ति परकी सहायताये या परसे होती है यह सिद्ध करना चाहता है किन्तु अपना यह मान्यता दया "
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इसको समीक्षा में कहना चाहता हूँ कि पूर्व
उत्पादव्ययीव्य रूप प्रत्येक सलुकी उत्पत्तिको यथायोग्य परकी सहायतासे मानता है, पर नहीं मानता अर्थात् पर उसका कल होता है ऐसा वह नहीं मानता है। अतएव उसका "परकी सहायतासे" यह लिखना तो उचित है, परन्तु "परखे" लिखना बिलकुल निराधार और गलत है। ऐसा पूर्वपक्षने कहीं भी नहीं लिखा ।
उत्पादादिको परकी सहायता से माननेको पूर्वपक्षकी मान्यताको आगमविरुद्ध बतलाना मिथ्या है. क्योंकि सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० ७ में यह स्पष्ट बतलाया गया है कि उत्पादव्यय-शक्ति से स्वभावतः सम्पन्न प्रत्येक सत्का उत्पाद-यय स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो प्रकारसे होता है तथा इस बार पूर्वपक्ष प्रत्येक सतुको उत्पाद-व्यय-धन्य शक्ति स्वभावतः सम्पन्न मानकर उस शक्ति के अनुसार होनेवाले उसके उत्पाद व्ययको स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो प्रकारसे मानता है। इसके विपरीत उत्तरपक्षका कहना है कि प्रत्येक सत् यतः स्वभावतः उत्पाद-व्यय- श्रीव्याक्तिसे सम्पन्न है अतः इरा शक्तिके अनुसार होनेवाला इसका प्रत्येक उत्पाद व्ययरूप परिणमन भी प्रतिक्षण स्वभावतः अर्थात् अपने आप ही हुआ करता है उसको अपने उस उत्पाद व्यय किसी भी परिणमनके होनेगें परकी सहायता अपेक्षित नहीं होती है।
परन्तु उत्तरपक्ष की यह मान्यता आगम-विरुद्ध है, जैसा कि उक्त सर्वार्थसिद्धि प्रतिपदन से प्रकट है।
कथन ८३ और उसकी समीक्षा
(८३) आगे ० ० ० ७०-७१ पर उत्तरपक्षने लिखा है--"अतएव जहाँ भी नवनवी अपेक्षा कम किया गया है वहाँ पर प्रत्येक कार्य यथार्थमें परनिरपेक्ष ही होता है इस सिद्धांतको ध्यान में रखकर "स्वयमेव" पदका "स्वयं ही" जयं करना उचित है। इतना अवश्य है कि यदि विस्तारसे ही उस पदका अर्थ करना हो तो निश्चय पर कारकरूप भी इस पदका अर्थ किया जा सकता है. क्योंकि प्रत्येक द्रभ्य निश्चयनयसे आप कर्ता होकर अपने में अपने लिये अपनी पिछली पर्यायका अपादान करके अपने द्वारा अपनी पर्यावको आप उत्पन्न करता है। इसमें परका धनु मात्र भी योगदान नहीं होता। हां, असद्भूत व्यवहारनयसे परसापेक्ष कार्य होता है यह कहना अन्य बात है। किन्तु इस कथनको परमार्थभूत नहीं जानना चाहिए। यही कारण है कि समयसार में सर्वत्र व्यवहारपक्षको उपस्थित कर निश्चयनयके कथन द्वारा असत् कहकर उसका प्रतिषेध किया गया है। कार्य कारणभावमें भी इसी पद्धतिको अपनाया गया है।"
आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वबतलाया जा चुका है कि "शिष्य पढ़ता है" इसका अभिप्राय यह है कि पठनक्रिया शिवयकी अपनी ही क्रिया है । वह शिष्यमें ही हो रही है और वह उसमें स्वभावतः पाई जानेवाली पठनक्रियाकी