Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समोक्षा
अर्थ-कर्मत्वके योग्य अर्थात कर्मरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट पदगल स्कंध जीवकी परिणतिको अर्थात रागादि परिणतिको प्राप्त कर अर्थात आधय कर कर्मभावको अर्थात कर्मरूप परिणतिको प्राप्त होते हैं । वे जीव द्वारा कर्मरूप परिणत नहीं किये जाते अर्थात् कर्मरूप परिणत होनेकी शक्तिसे रहित पुद्गलस्कंधोंको जीव कर्मरूप परिणत करा देता हो, ऐसा नहीं है।
टीका-यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढजीवपरिणाममात्र बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्यपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधार्यते न खलु पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ।
अर्थ-जिस कारणगे तुत्य क्षेत्रमें अवमाहनको प्राप्त जीवको परिणति मात्र अर्थात् रागादि रूप परिणति मात्र बाद्य साधनका आश्रय करके परिणमन करानेवाले जीवके बिना भी कर्मरूपसे परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट पदनालस्कन्ध स्वयं अर्थात कमस्वशक्तिके अनुरूप ही कर्मरूपसे परिणत होते हैं। इससे निर्णीत होता है कि जीव पुदगलस्कन्धोंके कर्मरूप परिणमनका कर्ता नहीं है।
उक्त माथा और उसकी उक्त टोकासे यह ध्वनित होता है कि यद्यपि जीवके सहयोगसे ही पुद्गलस्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन होता है । तथापि जीबके सहयोगसे घे ही पद्गलस्कन्ध कर्मरूप परिणत होते हैं, जिनमें कर्मरूपसे परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता पाई जाती है अर्थात् जोब उन पुद्गलस्कन्धोंको कर्मरूप परिणत नहीं कराता है, जिनमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वभाविक योग्यता नहीं पाई जाती है। इससे प्रतीत होता है कि जीव मुद्गलस्कन्धोंके कर्मरूप परिणमनका कर्ता नहीं होता है । अतः सिद्ध होता है कि पुद्गलस्कन्धोंकी कर्मण परिणति उरामे विद्यमाम कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होती है । जीव तो उनकी उस परिणतिके हानेमें निमित्त (सहायक) मात्र होता है 1 पुद्गलस्कंधोंके साथ वह जीव भी कर्मरूप परिणत होता हो, ऐसा नहीं है।
आचार्य जयसेनने उक्त गाथाकी टीकामें स्पष्ट लिखा है कि जीव निश्चयसे कर्मका कता नहीं होता, जिसका तालार्य यह है कि जीव व्यवहारसे कर्मका का होता है अर्थात् जीव कर्म का ऋर्ता कर्मरूप परिणत होने रूपसे न होकर पुद्गलके कर्मला परिणमन में सहायक होने रूपसे होता है। इससे भी यही प्रकट होता है कि कर्मरूप परिणति तो पुद्गलकी ही होती है और वह उसी पुद्गलकी होती है जिस पुद्गलमें कर्मरूपसे परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यता पाई जाती है। केवल इतनी बात अवश्य है कि पुद्गलको बह कर्मरूप परिणति जीवकी सहायतासे होती है, उसकी सहायताके बिना नहीं होती।
इस प्रकार इस विवेचनसे अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि प्रवचनसार माथा १६९ और उसकी आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका तथा आचार्य जयसेन कृत टीकासे भी प्रकृत प्रकरणमें "स्वयं' पदका पूर्वपक्षको मान्य अर्थ ही गहीत होता है, उत्तरपक्षको मान्य अर्थ नहीं, अर्थात उक्त गाथा और उसकी दोनों टीकाओंके अनुसार कर्मरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट पदगल ही कर्मरूप परिणत होने रूपसे कर्मका का होता है, जीव उसका उस रूपसे परिणत होने रूपसे का नहीं होता। केवल वह पुद्गलकी उस कर्मरूप परिणति में सहायक मात्र होता है। इस तरह जीवमें पुद्गलकी कर्मरूप परिणतिका कर्तृत्व न होनेपर भी पूर्वपक्षको मान्य सहकारीपनेकी सिद्धि तो उसमें अवश्य होती है, उसका उत्तरपक्ष द्वारा मान्य निषेध सिद्ध नहीं
सं०-२२