Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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रहने से कुम्भकारका घट रूपसे परिणत होना सम्भव नहीं है, अतः इन दोनोंमें उपादानोपादेयभाव सिद्ध न होकर निमित्तनैमित्तिकभाव हो मित्र होता है । इस तरह कुम्भकारमें विद्यमान निमित्तता और घटमें विद्यमान नैमित्तिकता दोनों अद्भूत व्यवहारनयका त्रिपथ है ।
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस प्रकार मिट्टी और टमें विद्यमान उपादानोपादेयभाव कल्पना - रोपितमात्र न होकर वास्तविक है उसी प्रकार कुम्भकार और घट में विद्यमान निमित्तनैमित्तिकभाव भी कल्पनारोपित न होकर वास्तविक हो है । अन्तर केवल इतना है कि मिट्टी और घटमें विद्यमान उपादानोपादेयभाव एक वस्तुनिष्ठ तादात्म्यसंवंचालित होने के आधारपर वास्तविक है और कुम्भकार द घटमें विद्यमान निमित्त नैमित्तिकभाव वस्तुनिष्ठ संयोगसंबंधाश्रित होनेके आधारपर वास्तविक हूँ । अथवा मिट्टी घटरूप परिणत होती है अतः मिट्टी में विद्यमान उपादानकारणता और टमें विद्यमान उपादेयता रूप कार्यता दोनों वास्तविक हैं । तथा कुम्भकार मिट्टी की घटरूप परिणतिमें सहायक होता है अतः कुम्भकारमें विमान वितरना नैतिकता रूप कार्यता ये दोनों भी वास्तविक हैं । अर्थात् इनमें कोई भी आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित मात्र नहीं है। इसी प्रकार मिट्टी और घटने विद्यमान उपर्युक्त प्रकारकी अभेदरूप वास्तविकता निश्चयनयका विषय है तथा इनमें विद्यमान उक्त प्रकारको कथंचित् भेद रूप refreता सद्भूत उपवहारनयका विषय हैं व कुम्भकार और घट में विद्यमान उपर्युक्त प्रकारकी सर्वथा भेदरूप वास्तविकता अद्भूत व्यवहारनयका विषय है । यद्यपि असद्भूत व्यवहारनम और इसका विषय अयथार्थ असत्यार्थ या उपचरित अवश्य हूँ परन्तु वे पराश्रितता के आधारपर ही अयथार्थ, असत्यार्थ और उपचरित हैं, कल्पनारोपितता के आधारपर अयथार्थ, असत्यार्थ और उपचारित नहीं है ।
उपर्युक्त विवेचनके आधारपर यह कहा जा सकता है कि उत्तरपक्षने अपने उल्लिखित वक्तव्यमें जो यह कहा है कि "अपरपक्ष किस नमकी अपेक्षा या वक्तव्य आगम में लिखा गया है इस ओर ध्यान न देकर मात्र अपनी मान्यताको आगम बनाने के फेर में हैं, अन्यथा वह पक्ष असद्भूत व्यवहारनयके वयसम्यको असद्भूत मानकर इस नयकी अपेक्षा कथन आगम में किस प्रयोजनसे किया गया है इसपर दृष्टिपात करता ।" सो उसका यह लिखना असंगत ही है, क्योंकि पूर्वपदाने आगमके आशयको समक्ष कर ही उक्त प्रतिपादन किया है । और उसकी यह मान्यता आगमसे प्रमाणित 1 यह पूर्व में नित भी किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में उत्तरपक्ष के प्रति ही यह कहा जा सकता है कि वह किस नयकी अपेक्षा क्या वक्तव्य आगममें लिखा गया है इस ओर ध्यान न देकर मात्र अपनी मान्यताको आगम बनाने के फेर में है, अन्यथा वह असद्भूत व्यवहार को पराश्रितता के रूपमें असद्द्भूत मानकर इस नथकी अपेक्षा कथन आगममें किस प्रयो जनसे किया गया है, इस ओर अवश्य दृष्टिपात करता ।
कथन ८१ और उसकी समीक्षा
(८१) आगे उत्तरगक्षने त च० पृ० ७० पर यह कथन किया है कि " प्रवचनसारगाथा १६९ की आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका में "स्वयं" पद आया है। हमने उसका अर्थ प्रकृत शंका प्रथम उस रमे "स्वयं" ही किया है। किन्तु अपरपक्षको यह अर्थ मान्य नहीं। वह इसका अर्थ "अपने रूप" करता है। इसके समपूर्वपक्षकी मुख्य युक्ति यह है कि सहकारी कारणके बिना कोई भी परिणति नहीं होती, इसलिए कार्यकारणभाव के प्रसंग सर्वत्र इस पदका अर्थ "अपने रूप" या "अपने में" करना ही उचित है ।"