Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
समयसार गाथा ८० में बतलाया गया है कि जीवपरिणामके हेतु (निमित्त ) होनेपर पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं और पुद्गलकर्मके निमित्त होनेपर जीव भी उसी प्रकार अर्थात् रागादिभावरूप परिणत् होता है। उसकी गाथा ८१ में वतलाया गया है कि जीव कर्मगुणरूप परिणत नहीं होता और कर्म जीवगुणरूप परिणत नहीं होता, केवल एक दूसरेके निमित्तसे दोनों अपने उपर्युक्त प्रकारके परिणमन किया करते हैं। इन दोनों गाथाओंका आशय यह है कि जब जीनकी पुद्गलकर्मके साथ और पुद्गलकी जीवके रामादि परिणामों के साथ कालप्रत्यासत्ति अर्थात् एक कालमें योग होता है तब हो दोनों अपना-अपना उपर्युक्त प्रकारका परिणमन करते हैं, अन्यथा नहीं ।
यद्यपि जिनागम में यह भी बतलाया गया है कि प्रत्येक वस्तु सतत परिणमन करती रहती है। एक ris लिए भी उसका परिणमन रुकता नहो, एक साथ ही यह भी जिनागम में बतलाया गया है कि वस्तुका स्वपरप्रत्यय परिणमन निमित्तसापेक्ष होता है और स्वप्रत्यय परिणमन निमित्तनिरपेक्ष होता है । समयसार गाथा ८० और ८१ में जीव और पुद्गलके निमित्त गापेक्ष स्वपरप्रत्यय परिणमनोंकी व्यवस्थाका ही दिग्दर्शन कराया गया है | यही व्यवस्था समस्त वस्तुओंके निमित्तसापेक्ष स्वरप्रत्यय परिणमनों के सम्बन्धमें भी समझ लेना चाहिए ।
पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष में इन निमित्तसापेक्ष परिणमनोंकी व्यवस्थाके सम्बन्ध में हो विवाद है अर्थात् पूर्व में किये गये विवेचन के अनुसार उत्तरपक्ष का कहना है कि वस्तुमें परिणमनोंकी प्रक्रिया सतत चालू रहते हुए उसका जिस समय जो परिणमन होता हैं उस समय उसके अनुकूल निमित्तकारणभूत वस्तुका योग उसे नियमसे मिल जाया करता है। उसके इरा कथनका अभिप्राय यह है कि वह एक वस्तुकी परिणतिमें अन्म भूत वस्तुको सर्वथा अकिचित्कर मानता है । पर पूर्वपक्षका कहना है कि वस्तुमें परिणमनको प्रक्रिया चालू रहते हुए भी जिस समय उसके जिस परिणमनके अनुकूल उसे निमित्त सामग्रीका योग मिलता है उस समय ही उसका यही परिणमन होता है । पूर्वपक्ष ऐसा कथन इसलिये करता है कि वह एक वस्तुकी परिपतिमें अन्य निमित्तभूत वस्तुको अनिवार्य सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है । यतः पूर्वपक्ष ने तत्त्वचर्चा में और मैंने उसकी इस समीक्षामें आगम प्रमाणके भावापर यह सिद्ध किया है कि निमितभूत वस्तु उपादानभूत वस्तुको परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी ही होती है । अतः पूर्वपक्षका उक्त कथन आगमसम्मत होने से सम्यक है, उत्तरपक्षका नही है । उत्तरपक्षने आगमका अर्थ ठीक तरहसे समझने की चेष्टा नहीं की है । कोई भी भाषाविज्ञानी व्यक्ति समयसार गाथा ८० और ८१ के अर्थ पर ध्यान देकर यह स्वीकार करनेके लिए बाध्य हो जायेगा कि निभिसभूत वस्तु उपादानभूत वस्तुको परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी होती है | आगमको इस व्यवस्थाको यदि उत्तरपक्ष अस्वीकृत करनेकी अपनी जिद नहीं छोड़ता है तो उसकी इस जिदको समाप्त करनेका अरहंत भगवानके पास भी उपाय नहीं है ।
जिलागम में यह बतलाया गया है कि मिट्टीकी घटरू परिपति हो जानेपर भी घट मिट्टीके रूपको नहीं छोड़ता, अतः मिट्टी और घटमें अभेद होनेसे घटमें विद्यमान मिट्टीका रूप निश्चयनयका विषय है तथा मिट्टी में घटकी उपादानता पाई जाती है और घटमें मिट्टीको उपादेयता पाई जाती है। अतः इन दोनोंमें इस उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावके आधारपर भेद सिद्ध हो जानेसे घटव सद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है । उसी जिनागममें यह भी बतलाया गया है कि मिट्टी से बननेवाले घटके निर्माण में कुम्भकार भी सहायक होने रूपसे कारण होता है । इतना अवश्य है कि घट और कुम्भकार में वस्तुभेद विद्यमान