Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा इसी सरह "मैंने अमुक कार्य के निमित्त मिलाये" यह कथन मात्र तो नहीं है । किन्तु इतना अवश्य है कि यदि किमीको इसमें अहंकार उत्पन्न हो जाये तो वह अनुचित है, क्योंकि कार्यके निमित्त मिलनेके साथ कार्यरूप परिणत होनेवाली वस्तुमें उपादानशक्तिका सद्भाव व बाधक कारणों का अभाव आदिका योग मिलनेपर ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। "उत्तरपक्षके "एक द्रव्य दरारं द्र व्यकी क्रियाका कर्ता त्रिकालमें नहीं हो सकता'' इस कथन में पूर्वपक्षको अणुमात्र भी विवाद नहीं है। किन्तु एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी सहायता अवश्य करता है । इसी अभिप्रायसे आचार्य गद्धपिच्छने तत्वार्थसूत्रमें 'परमारोपनहो जोवनाम् सूत्र (५-२१) का सृजन किया है।
इस तरह उत्तरपक्ष भले ही कहता रहे कि "अपरपक्षने हमारे कथनको ध्यान में न रखका कार्यकारणभावका उलटा चित्र उपस्थित किया है किन्तु उसका ऐसा कहना वास्तविक नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्षने पूर्वक्ति प्रकारसे युक्ति और आगम-सम्मत कार्यकारणभाव प्रदर्शित किया है। कथन ७१ और उसकी समीक्षा
(७९) आगे उत्तरपक्षने त च० ए०७. पर ही यह कथन किया है-"हमारा उपादानके अनुसार भालिंग होता है" यह कथन इसलिये परमार्थरूप है, क्योंकि कर्मक क्षयोपशम और भावलिगका एक काल में होनेका नियम होनेस उपचारसे यह कहा जाता है कि योग्य क्षयोपशमके अनुसार मात्माम भावलिंगकी प्राप्ति होती है। जिस पंचास्तिकायका वहाँ अपरपक्षने हवाला दिया है उसी पचास्तिकाव गाथा ५८ में पहले सब भावोंको कर्मकृत बतला कर गाथा ५९ में उसका निषेध कर यह स्पष्ट कर दिया है कि आत्माक भावोंको स्वयं आरमा उत्पन्न करता है, कम नहीं, अतः चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशमके अनुसार भालिंग होता है, इसे यथार्थ कयन न समझकर अपने उपादानके अनुसार भालिग होता है, इसे हो आगमसम्मत यथार्थ कथन जानना चाहिए। इसपर अपरपक्ष भी स्वयं निर्णय कर सकता है कि यथार्थ कथन अपरपक्षका न होकर हमारा ही है।"
इसपर मेरा कहना है कि पूर्वपक्ष भी पादानकी अपेक्षा "उपादानके अनुसार भावलिंग होता है" इसे यथार्थ मानता है। किन्तु वह "चारित्रमोहनीयकर्मक वयोपधामके अनुसार भावलिंग होता है" इसे भी निमित्त कथनकी अपेक्षा यथार्थ मानता है। इतना विशेष है कि "उपादानके अनभार भावलिंग होता है" इसकी यथार्थतामें पूर्व पक्षकी "उपादान ही भावलिंग रूप परिणत होता है' यह दृष्टि है और "चारियमोहनीयकर्मक क्षयोपशमके अनुसार भावलिंग होता है" इसकी यथार्थतामें उसकी "चारित्रमोहनीयकर्मका क्षयोपशम उपादानके भावलिंग रूप परिणमनमें सहायक होता है" यह दष्टि है । जबकि उत्तरपन "जपादान ही भावलिंग रूप परिणत होता है। इसे ही यथार्थ मानता है और "चारित्रमोहनीयकर्मका योपशम उपादानके भालिंग रूप परिणमन में राहायक होता है इसे यथार्थ नहीं मानना चाहता. क्योंकि व धानके भावलिंग रूप परिणमनमें चारित्रमोहनीयकर्मके मयोपशमको सहायक होने रूपसे कार्यकारी न मानकर सहायक न होने रूपसे अकिचित्कर कहकर काल्पनिक हो मानता है। दोनों में यही मतभेद है। उनमें इस मान्यताके विषयमें कोई विवाद नहीं है कि उपादान भावलिंगका यथार्थ अर्थात निश्चय कारण है और चारित्रमोहनीवकर्मका क्षयोपशम अयथार्थ अर्थात् ब्यवहार या उपरित कारण है। विवाद यही है कि जहां पूर्वपक्ष चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशमको भावलिंगमे उपादानका सहायक होने के आधारपर कार्यकारी