Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
१५८
कथन ७३ और उसकी समीक्षा
(७३) आगे उत्तरपक्षने त० ० ० ६८ पर ही यह लिखा है कि "यहां अपरपक्षने करणानुयोग और चरणानुयोग की चर्चा कर जो निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र के एक साथ होनेका संकेत क्रिया है। सो उसका हमारी ओरसे कहाँ निषेध किया गया है ।" इस सम्बन्धमं मेरा कहना यह है कि उत्तरपक्षने ऐसा लिखते समय पूर्वपक्ष के सम्पूर्ण कथनपर ध्यान नहीं दिया है। पूर्वपक्ष ने अपना कथन उत्तरपक्ष के "यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंग के प्राप्त होने से पूर्व ही द्रव्यलिंग स्त्रीकार कर लेता है पर उस द्वारा भावलिंगकी प्राप्ति द्रव्यलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो ऐसा नहीं है किन्तु जहाँ उपादानके अनुसार भार्शलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलग रहता हो है । तीर्थंकरादि किसी महान् पुरुषको दोनों की एक साथ प्राप्ति होती हो यह बात अलग हैं।" इस कंपन के सम्बन्ध में किया है और वह इस दृष्टिसे किया है कि उत्तरपक्ष भावसिंग और द्रव्यलिंग में निमित्तनैमित्तिक भावरूप कार्य कारणभाव स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं है। उत्तरपक्षका मात्र इतना ही कहना है कि "जब उपादान के अनुसार भावलिंग होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलिंग रहता ही है ।" इस तरह उत्तरपक्ष भावलिंग की उत्पत्तिमें द्रव्यलिंगको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है जबकि पूर्व आगमके आधारपर यह कहना है कि भावलिंगकी उत्पत्ति में द्रव्यलिंग भी महायक होने रूपसे निमित्तकारण होता हैं अर्थात् द्रव्य लिंगको धारण किये बिना जीवको भावलिंगकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। भले ही द्रव्यलिंगकी प्राप्ति भावलिंगके पूर्व मानी जाये अथवा दोनोंकी एक साथ प्राप्ति मानी जाये |
मन, वचन (मुख) और शरीर ये तीनों पीद्गलिक है, क्योंकि इनकी रचना नोकवर्गणासे हुआ करती है। जीव द्वारा धनके समन्वित अबलम्बनपूर्वक जो मोक्षके अनुकूल क्रिया की जाती है उसे ही आग में द्रव्यलिंग कहा जाता है और इसके आधारपर उन-उन कर्मोंका यथासंभव उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविशुद्धि प्रगट होती है उसे आग नावलिंग कहा गया है । तात्पर्य यह है कि दर्शन मोहनीय कर्मभेद मिथ्यात्व सम्प्रमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति तथा चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तातुबन्धी काषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात कर्माकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविशुद्धि जीव में प्रगट होती है उसे निश्चय वा भाव सम्यग्दर्शन कहा जाता है तथा इसके अनुकूल मन, वचन और कायके समन्वित अवलम्बनपूर्वक जीव द्वारा संकल्पी पापोंसे निवृत्त होकर जो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और अस्तिक्य रूप आचरण किया जाता है उसे व्यवहार यह द्रव्ध सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसी तरह चारित्रमोहनीय के ही भेद अप्रत्याख्यानावरण करायरूप क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कर्मप्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविद्युद्धि जीव में प्रगट होती है उसे देशविरतरूप निश्चय या भावसम्यक् चारित्र कहा जाता है। तथा इसके अनुकूल मन, वचन और कारकं समन्वित अवलम्बनापूर्वक जीव द्वारा एक देश आरम्भी पापोंसे विरत होकर जो अणुव्रतादि रूप आचरण किया जाता है उसे देशविरतरूप व्यवहार या द्रव्यभ्यचारित्र कहते हैं । इसी तरह चारित्रमोहनीय कर्मके ही भेद प्रत्याख्यानावरण कषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कर्म प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर जो आत्मविशुद्धि जीवमें प्रगट होती है उसे सविरतरूप निश्चय या भावसम्यक् चारित्र वहा जाता है तथा उसके अनुकूल मन, बचन और कायके समन्वित अवलम्बनपूर्वक जीव द्वारा सर्वदेश आरम्भी पापोंसे विरत होकर जो महाव्रतादि रूप आचरण किया जाता है उसे सर्वविरत रूप व्यवहार या द्रव्यसम्यकुचारित्र कहते हैं ।