Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खनिया) तत्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा
इसको लेकर अपरपक्षने यहाँ " द्रव्यगतस्वभाषाः परकी जो विवेचना की है वह कुछ नहीं है किन्तु उसका आशय इतना ही है कि जिसे आगम में स्वप्रत्यय परिणमन (स्वभावणर्याय) कहा है और जिसे आगम स्वपरप्रत्यय परिणमन (विभाव पर्याय) नहा है वह सब वाह्याभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होता है ऐसा द्रव्यगत स्वभाव है।"
इस सहाय उत्तरपक्ष द्वारा अपने उपर्युक्त वक्तव्य प्रतिपादित निमित्त जुटाने की बात के विषय में पूर्वपक्षने ५वीं शंकाके तीसरे दौर में जो कुछ लिखा है उसका वहीं पर स्पष्टीकरण करना उचित होगा। यहाँ तो मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि उत्तरपक्ष बसे कचनको केवल विकल्पका परिणाम मानता है तो उसे स्वयं अपने अनुभवपर दृष्टिपात करना चाहिए, ताकि वह उस अनुभवा अपने इस विकल्प परिणामकी मान्यताका समन्वय कर सके और इस तरह उसकी विवक्षित कथनको विकल्पका परिणाम स्वीकृत करनेकी मान्यताका उसके अनुभव के साथ यदि समन्वय न हो सके तो उसे इस मान्यताका श्याग कर देना चाहिए ।
पूर्वपक्ष द्रव्यगतस्वभावः" पदकी ० ० ० २६ पर जो विवेचना की है उसको उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमे युक्तियुक्त नहीं माना है और अपनी ओरसे उसने उसका आशय इस रूप में व्यक्त किया है कि "जिसे आगम में स्वप्रत्यय परिणाम (स्वभाव पर्याय) कहा है और जिसे आगममं स्वपरप्रत्यय परिणाम (विभाव पर्याय) कहा है वह सब वाह्याभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होता है ऐसा मत स्वभाव है।" सो उत्तरपक्ष के इस जिनमें और पूर्वपक्ष के द्वारा इस विवेचनमे तो मुझे द्रव्यगतस्वभावः" पदका एक ही जैसा अभिप्राय समझमे आ रहा है। दोनोंमें केवल यही अन्तर दिखाई देता है कि जहाँ पूर्ववक्ष आगम के आधारपर सभी द्रव्यों को पगुणहानिवृद्धिरूप स्वभाव पर्यायोंको स्वप्रत्यय और सभी द्रव्योंकी शेष स्वभावरूप पर्यायोंको तथा आत्मा और पुद्गलकी इस तरह की स्वभावरूप पर्यायोंके साथ विभावरूण पर्यायको भी स्वपरप्रत्यय मानता है वहां उत्तरपक्षानं अपने उपर्युक्त वक्तव्य में स्वभाव पर्याय स्वप्रत्यय परिणाम और विभावर्याको स्वपर प्रत्यय परिणाम कहा है अर्थात् उत्तरपक्ष पर्यायोंके विषय में स्वप्रत्ययका अर्थ स्वभाव और स्वपरप्रत्ययका अर्थ विभाव ही ग्रहण करना चाहता है और इन दोनोंकी उत्पत्तिको वह बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रतामें स्वीकार करता है जो अपेक्षाकृत होनेसे विवादको वस्तु नहीं है अर्थात् पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनसे उत्तरपक्षके कथनमें मात्र यह विशेषता है कि उत्तरपक्ष सभी द्रव्योंकी गुणहानिबुद्धिरूप स्वप्रत्यय पर्यायों विषयमें उनमें वासम्भव विद्यमान उपर्युक्त शेप राभी स्वपरप्रत्यय पर्यायोंके विषय मौन रहकर केवल आत्माकी कर्मोक उपशम, दाम और क्षयोपशममें होनेवाली स्वभाव पर्यायों को स्वप्रत्यय व कर्मोके उदयमें होनेवाली विभाव पर्यायोंको स्वपरप्रत्यय स्वीकार करता है, इसलिए दोनों पक्षोंके परस्पर भिन्न कथनों में केवल अपेक्षाकृत भेद रहने के कारण विवाद के लिए कोई स्थान नहीं है ।
व
इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य उनके इस वक्तव्यों को देखते हुए केवल "तादृशी जाय बुद्धिः" इत्यादि पद्यकी प्रमाणता और अप्रमाणताका तथा उसका क्या अभिप्राय है, इसका ही विवाद विद्यमान रह जाता है जिसके विषयमे मेरा कहना है कि पूर्वी दृष्टि युक्तियुक्त और आगमसम्मत है, उत्तरपक्ष की दृष्टि युक्तियुक्त और बागमसम्मत नहीं है । तत्वजिज्ञासुओं को इसपर ध्यान देना चाहिए ।
कथन ७२ और उसकी समीक्षा
(७२) पूर्व० ० ० २६ पर जीवकी मोक्ष पर्यापको स्वपरत्यव पर्याय बतलाया है ।