Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (स्वानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
प्रत्यय दोनों प्रकारके रखे जमानरूपन्य प्रमही मान लेना चाहता ले तो उसके इस अभिप्रायकी पुष्टि हरिवंशपुराणके उस लोकसे होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उस श्लोकसे "जो करता है वहीं भरता (भोगता) है" मात्र इस सिद्धान्तकी पुष्टि होती है। इससे यह अभिप्राय फलित नहीं होता कि आत्मा निमित्तभूत बाह्य सामग्रोका सहयोग प्राप्त किये बिना ही उक्त कायौंको सम्पन्न कर लेता है । कथन ६९ और उसकी समीक्षा
(६९) इसके आगे त० च० पृ० ६७ पर ही उत्तरपने लिखा है कि "मालूम नहीं अपरपक्ष पराश्रित जीवनका समर्थन कर किस उलझनमें पड़ा हुआ है, इसे वह जाने। वैज्ञानिकों की भौतिक खोजसे हम भलिभांति परिचित है। उससे तो यही सिद्ध होता है कि किस विशिष्ट पर्यायवुक्त बायाभ्यन्तर सामग्रीके सद्भावमें क्या कार्य होता है। हमें मालम हआ है कि जापानमें दो नगरोंपर अणुबमका विस्फोट होनेपर जहां असंख्य प्राणी कालकवलित हुए वहाँ बहुतसे क्षुद्र जन्तु रेंगते हुये भी पाये गये। क्या इस उदाहरणसे उपादानके स्वकार्य कर्तृत्वकी सिद्धि नहीं होती है, अपितु अवश्य होती है" । आगे इसकी समीक्षा की जाती है
पूर्वपक्षके सामने पराश्रित जीवनके समर्थनका प्रश्न नहीं है। सभी मानते है कि पराश्रित जीवन अच्छा नहीं है। परन्तु इतने मात्र पराश्रित जीवनका अभाव तो नहीं माना जा सकता है। लोकमें पराश्रित जीवनका अस्तित्व तो निर्विवाद है इसे उत्तरपक्ष माने या न माने । परन्तु इसपरसे उत्तरपक्ष यदि यह आशंका प्रकट करे कि इससे उपादानके स्वकार्यकर्तृत्वकी हानि हो जायेगी तो उसकी यह शंका निराधार है, क्योंकि कार्यका कर्ता तो उपादानको ही सभी मानते है । केवल मतभेद इतना ही है कि जहाँ उत्तरषक्ष उपादानकी कार्यरूप परिणतिको निमित्तका सहयोग प्राप्त किये बिना ही मानता है वहां पूर्णपक्ष उपादानकी कार्यरूप परिणतिको निमिसके सहयोगसे ही मानता है। अर्थात जहाँ उत्तरपक्ष उपादानकी कार्यपरिणतिमें सहायक न होने के आधारपर निमित्तको अकिचित्कर मानता है वहीं पूर्वपक्ष निमित्तको उपादानकी कार्यरूप परिणति में सहायक होनेके आधार पर कार्यकारी ही मानता है, अकिंचित्कर नहीं । तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्षकी मान्यताके अनुसार वस्तुमें बाणहानि वृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमनोंसे अतिरिक्त उपादानगत सभी स्वपरप्रश्यम परिणमन निमित्तभूत बाह्म सामग्री के सहयोगसे ही उत्पन्न हुआ करते हैं। इस बातको आगमके आधारपर पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इतना ही नहीं, उत्तरपक्ष जिस विधिष्टि पयस्थियुक्त बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके सद्भावमें कार्योत्पत्ति स्वीकार करता है उस विशिष्ट पर्यायकी उत्पत्तिकै विषयमें भी आगमके आधारपर पूर्वमें यह सिद्ध किया जानका है कि उस विशिष्ट पर्यायकी वह उत्पत्ति भी निमिसभत बाध सामग्रीफे सहयोगसे ही हआ करती है। यदि जापानमें अबमका विस्फोट होनेपर असंख्य प्राणियोंकी मत्यके साथ ही क्षद्र जन्सुओंकी उत्पत्ति हो गई तो इससे यह तो सिद्ध नहीं हो जाता कि उनकी यह उत्पत्ति केवल उपादानगत योग्यताके आधारपर हो गई। उनकी वह उत्पत्ति भी बाध सामग्रीकी सहायताके आधारपर उपादानगत योग्यताके अनुसार हुई ऐसा मानना चाहिए । अर्थात अणुबमका विस्फोट होने पर जो भूमिमें गरमाहट आई उसे ही उन जन्तुओंकी उत्पत्ति में कारण मानना चाहिए ।
कथन ७० और उसकी समीक्षा
(७०) पूर्वपक्षने त० च• पृ० २५ पर यह कथन किया है कि "आगे आपने स्वामी समन्तभद्रकी "बाह्मतरोपाधिसमग्रतेयं" इत्यादि कारिकाका उल्लेख करके बाह्य ओर आम्यन्तर कारणोंको समग्रताको