Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 337
________________ १५० जयपुर (सानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा कथन ६४ और उसकी समीक्षा (६४) उत्तरपक्षाने अपने उपयुक्त वक्तव्यमें ओ यह लिखा है कि "किन्तु हमें खेद है कि अपरपक्ष इस कथनका ऐसा विपर्यास करता है जिसका प्रकृतमें कोई प्रयोजन नहीं है। तथा उसके आगे उसने जो यह लिखा है "इसका विशेष विचार हम छठी शंकाके तीसरे दौर के उत्तर में करनेवाले है ।” सो इसकी समीक्षा भी मैं वहींपर करूंगा। कथन ६५ ओर उसकी समीक्षा (६५) उस रकाने अपने उपयुक्त वक्तव्य आगं स्वप२ प्रत्यय परिणमनका अभिप्राय बतलानेका जो प्रमत्म किया है उसके विषयमें मात्र मेरा कहना यह है कि उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिमें निमित्तको सर्वथा अकिचिकर ही मानता है तो ऐसी हालतमें उसके मतसे स्वपरप्रत्यय परिणमनकी सिद्धि करना असम्भव हो जानेसे उसके द्वारा स्वपरप्रत्यय परिणमनके अभिप्रायको प्रगट किया जाना अनावश्यक है। कथन ६६ और उसकी समीक्षा (६६) उपर्युक्त वक्तव्य के आगे उत्तरपक्षने त १० पु६६ पर भी यह लिखा है कि "अपरपक्षका कहना है कि बाह्य सामग्री उपादानके कार्यमें सहयोग करती है तो यह सहयोग क्या वस्तु है' ? तथा इसके अमन्तर उसने सहयोगके स्पष्टीकरण के सम्बन्धमें विविध प्रकारके विकल्प उठाकर उनका खण्डन किया है। मैं उन विकल्पोंको और उनके खण्डनको अपनी समीक्षाके साथ यहां उद्धृत कर देना उचित समझता हूँ । (२) उत्तरपक्षने पहला विकल्प "श्या दोनों मिलकर यह कार्य करते हैं यह सहयोगका अर्थ है ? यह उठाकर इसका खण्डन इन शाब्दोंमें किया है कि "किन्तु यह तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि दो द्रव्य मिलकर एक क्रिया नहीं कर सकते ऐसा व्य स्वभाव है" (देखो-समयसार कलश ५४) इसकी समीक्षामें मेरा कहना है कि "दो द्रव्य मिलकर एक क्रिया नहीं कर सकते" यह तो सामान्यतया निर्विवाद है। परन्तु उपादान और निमित्त दोनों मिलकर इस रूपमें स्त्रपरप्रत्यय कार्य सम्पन्न किया करते हैं कि उपादान कार्य रूप परिणत होता है और निमित्त उपादानको उस कार्यरूप परिणत होने में प्रेरक एवं उदासीन रूपसे बलाधायक होता है, यह बात पदमनन्दिपंचविशतिका "द्वयवृतो लोके विकारो भवेत" इस वधनसे सिद्ध होती है। (२) उत्तरपक्षने दूसरा विकल्प 'क्या एक द्रव्य दूसरे द्रध्यकी क्रिया कर देता है यह सहयोगका अर्थ है ?" यह उठाकर इसका खण्डन इन शब्दोंम किया है कि "किन्तु यह भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि एक द्रव्य अपनेसे भिन्न दूसरे द्रव्यको क्रिया करने में सर्वथा असमर्थ है। (देखो प्रवचनसारगाथा १५ को जयसेनीय टीका)" । इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके इस कथनमें कोई विवाद नही है। (३) उसरपक्षने तीसरा विकल्प "क्या एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी पर्यायमें विशेषता उत्पन्न कर देता है यह सहयोगका अर्थ है ?" इसका खण्डन इन शब्दोंमें किया है कि "किन्तु अब कि एक द्रव्यका गुण-धर्म दूसरे द्रव्यमें संक्रमित ही नहीं हो सकता ऐसी अवस्थामें एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकी पर्यायमें विशेषता उत्पन्न कर देता है यह कहना किसी भी अवस्थामें परमार्थभूत नहीं माना जा सकता।" (देखो समयसारगाथा १०३ और

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