Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा होता है । उसका कहना तो यह है कि अन्य द्रव्य अन्य द्रत्यफे कार्यमें मात्र सहायक ही होता है । परन्तु वहींपर आगे उसने (उत्तरपशने) जो यह लिखा है कि "अतएव इष्टोपदेशके उक्त बचनको अनुसार प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि जिस प्रकार धर्मद्रव्य अन्यका कार्य करनेमें उदासीन है उसी प्रकार अन्य सभी द्रव्य अन्यका कार्य करने में उदासीन है"। सो इसका निराकरण भी परके कथनसे ही हो जाता है अति अपर यह बतलाया गया है कि कोई बाह्य सामग्री तो अन्य द्रब्बके कार्य में प्रेरक रूपमे पृथक निमित्त होती है, कोई बाह्य सामग्री अन्य द्रव्यके कार्य में धर्मद्र व्यके समान उदासीन रूपसे पृथक निर्मित होती है तथा यह भी बतलाया गया है कि प्रकृतमें उदासीनताका अर्थ अकिविस्करता नहीं है | इससे उत्तरपक्षका "अतएव इष्टो. पदेशके उक्त वचनके अनुसार" इत्यादि काथन भी निराकृत हो जाता है। कथन ६२ और उसकी समीक्षा
(६२) इसी तरह उत्तरपक्षने वहींपर अपनी मान्यताके रामर्थनमें लिखा है कि "यह तो कालप्रत्यासत्तिका ही साम्राज्य समझिये किती रहीं नाले कार्य सिमित न्यनतारापत्तीको प्राप्त हो जाते हैं और कभी और कहीं अन्यके कार्य में उदासीननिमित्तव्यवहारपदवीको प्राप्त हो जाते है । सो प्रकृतमें उत्तरपक्ष द्वारा स्वीकृत कालप्रत्यासत्ति तो पूर्वपक्षको भी मान्य है, परन्तु कालपत्यासत्तिक स्वरूपकी मान्यताम पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य मतभेद है तथा प्रेरक निमित्त की कालप्रत्यासत्ति और उदासीन निमित्तकी कालप्रत्यासत्तिको उत्तरपक्ष जहां एक रूप हो मानता है वहां पूर्वपक्ष दोनोंकी कालप्रत्यासत्तिको पृथक्-पृथक रूपमें ही स्वीकार करता है। इसी तरह जहाँ उत्तरपक्ष अपनेको मान्य कारप्रत्यासत्तिके आचार पर प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंको अन्य व्यके कार्य प्रति अकिचिल्कर मान लेना चाहता है वहाँ पूर्वपक्ष अपनेवो मान्य कालप्रत्यासत्तिके आधारपर प्रेरक और उदासीन दोनों निमित्तोंको कार्यकारी ही मानता है । यह सब विषय पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है। कथन ६३ और उसकी समीक्षा
(६३) पूर्वपक्षाने त० च०ए०२५ पर अपने कथनके तात्पर्यने रूपमें लिखा है कि "उपादानमें अनूफूल स्वपरप्रत्यय परिणमनकी योग्यता न हो लेकिन निमित्त-सामग्नी विद्यमान हो तो कार्य निापन्न नहीं होगा । इसी तरह उपादानमें अनुकूल स्वपरप्रत्यय परिणमनकी योग्यता हो, लेकिन निमित्तसामग्री प्राप्त न हो तो कार्य नहीं होगा। इसी तरह यषि उपादानमें उक्त प्रकारको योग्यता हो और निमित्त सामग्री भी विद्यमान हो लेकिन प्रतिबन्धक बाह्य सामग्री उपस्थित हो जावे, तो भो कार्य नहीं होगा। इरा भौतिक विकासके युगमें व्यक्ति या राष्ट्र जितनी अभूतपूर्व एवं आश्चर्य में डालनेवाली वैज्ञानिक खोजें कर रहे हैं वे सब हमें निमित्तोंके असीम शक्ति-विस्तारकी सूचना दे रही है । इसके आगे पृष्ठ २५ पर ही पूर्वपक्षने लिखा है कि "पूज्यपाद आचार्यके उक्त इलोकम जो "निमित्तमात्रमन्यस्तु' पद पड़ा हुआ है उसका आशय यह नहीं है कि निमित्त उपादानकी कार्यपरिणतिमें अकिचिकर ही बना रहता है जैसा कि आप मान रहे हैं। किन्तु उसका आशय यह है कि उपादानमें यदि कार्योत्पादनको शक्ति विद्यमान हो तो निमित्त उस कायोत्पत्ति में उसे (उपादानको) केवल अपना सहयोग प्रदान कर सकता है। ऐसा नहीं कि उपादानमें अविद्यमान योग्यताकी निष्पत्ति भी निमित्त द्वारा की जा सकती है। इससे यह तथ्य फलित होता है कि जिस प्रकार जैन संस्कृति वस्तमें स्वप्रत्यम और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार करती है उसी प्रकार वह माय परप्रत्यय