Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा अन्यथा यह व्यवहाराभास होगा" निरर्थक है । इसी तरह "यह वस्तुस्थितिका स्वरूप निर्देश है" ऐसा लिखकर उत्तरपक्षने लिखा है कि "इससे बाझ सामग्रीमें अन्य द्रव्यके कार्यकी कारणता काल्पनिक ही है" । सो उसका यह कथन वस्तुस्थिति के विरुद्ध है, क्योंकि पूर्वपक्षने त च में तथा हमने इस समीक्षामें सर्वत्र स्पष्ट किया है कि आगममें बाह्य सामग्रीको जो कार्योस्पसिके प्रति उपचरितकर्ता माना गया है उसका आधार यह बतलाया गया है कि बात सामग्रो कायोत्पत्ति में उपादानको सहायक होने रूपसे अनिवार्य कारण होतो है । उत्तरपक्षका उससे यह निष्कर्ष निकालना सर्वथा गलत है कि "फिर भी आमममें इस कारणताको काल्पलिक न कहकर जो उपचरित कहा है वह सप्रयोजन कहा है" क्योंकि काल्पनिक और उपचरितमें बड़ा अन्तर है। काल्पनिक तो अवस्तु होती है परन्तु उपधरित वस्तु होती है। फिर जब उत्तरपक्ष उपचार कथनको सप्रयोजन मानता है तो नाह्य सामग्रीको कार्योत्पत्ति में अकिंचित्कर कसे माना जा सकता है ? कथन ३९ और उसकी समीक्षा
(३९) पूर्वपक्षने त च० पृ. २० पर धवल पुस्तक १३ पृ. ३४९. के "एवं दुसंजोगादिणा" इत्यादि वचनको उद्धृत कर जो यह कहा है कि "पवलाझा यह वचन स्वपर प्रत्यय परिणमनकी उभयक्तिजन्यताका स्पष्ट उपदेश दे रहा है। उत्तरपक्षने इसकी आलोचना करते हुए त० च० पृ० ५६ पर लिया है कि "धवला पुस्तक १३ १० ३४९ का उच्चरण (जिसे अपरपक्षने प्रस्तुत किया है। संयोगको भूमिकामै उपचरित अनुभागका ही निरूपण करता है" | उत्तरपक्षके इस कथनमें पूर्वपक्षको कोई विरोध नहीं है। परन्तु उपचारको काल्पनिक मानना प्रमाणसंगत नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार स्वप्रत्यय कार्य स्वप्रत्ययरूप में वास्तविक है उसी प्रकार स्वपरप्रत्यय कार्य भी स्वपरप्रत्ययरूपमें वास्तविक ही है, काल्पनिक नहीं है। कथन ४० और उसकी समीक्षा
(४०) पूर्वपक्षने त० च० पृ. २. पर "उपचारकी प्रवृत्ति के लिये आगममें उपचारकी व्याख्या इस प्रकार की गई है" इस कथनके साथ आलापपद्धतिके 'मुख्याभाने' इत्यादि बचनको उद्धृत किया है और यह बतलानेका प्रयत्न किया है कि जहां मुख्परूपताका अभाव हो तथा निमित्त और प्रयोजनका सद्भाव हो वहीं उपचारकी प्रवृत्ति होती है । तथा इसके समन्वयके लिए कहा है कि जैसे अन्नमें प्राणोंका या बालकमें सिंहका उपचार लोकमें किया जाता है" आदि । सो इसकी आलोचना करते हुए उत्तरपक्षने तः च. पृ० ५६ पर लिखा है कि "अपरपक्षने 'मुरुपाभावे सति' इत्यादि वचनको उपचारको व्याख्या माना है जो अयुक्त है। इस कथन वारा तो मात्र उसकी प्रवृत्ति कहाँ होती है यह बतलाया गया है" तथा इस कथनके अनन्तर उपचारकी व्याख्यास्वरूप आलापपद्धतिके "अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भुतव्यवहारः । असद्धृतव्यवहार एव उपचारः" । इस वचनको उक्षत किया है । इस विषयमें मुझे केवल इतना हो कहना है कि यदि पूर्वपक्षने उपचारके प्रवृत्तिस्थलको उपचारकी व्याख्या समावेश कर दिया है तो इसमें क्या अमुक्तता है; यह समझ में नहीं आया, क्योंकि व्याख्याका अर्थ केवल लक्षण ही नहीं होता है । व्याख्यामें वस्तुके स्वरूप, विषय, भेद-प्रभेद और प्रवृतिस्थल आदि सभीका समावेश होता है। उत्तरपक्षको उचित है कि बालकी खाल न निकाल संगत ही वक्ताके अभिप्रायको समझे ।
आगे इसी विषयका विस्तार करते हुए त० च. १० ५६ पर उत्तरपक्षने लिखा है-"प्रकृतमे कार्यकारणभावका विचार प्रस्तुत है। कार्य एक है और कारण दो-एक बार सामग्री, जो अपने स्वचतुष्टय