Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
View full book text
________________
शंका-समाधान १ की समीक्षा
द्रव्यपर्यायात्मक अन्तरंग योग्यताके बलसे ही बनता है और सभी दर्जीका योग तथा विकल्प आदि अन्य सामग्री उसकी नरा पर्याय में निमित्त होती है।" संगत नहीं है।
कथन ५४ और उसकी समीक्षा
(५४) आगे त० च पृ० ६५ पर उत्तरपक्षने लिखा है कि "अपरपक्ष यद्यपि केवल बाह्य सामग्रीके आधारपर कार्यकारणभावका निर्णय करना चाहता है और उसे वह अनुभवगम्य बतलाता है। किन्तु उसकी यह मान्यता कार्यकारी अन्तरंग योग्पताको न स्वीकार करनेका ही फल है जो आगमविरुद्ध होनसे प्रकृतमें स्वीकार करने योग्य नहीं है।" इस विषयमे भी मेरा कहना है कि उत्तरपक्ष का यह सब लिखना युक्त नहीं है, क्योंकि कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके सदभाव और निमित्त भूत बाह्य सामग्रीका सहयोग दोनोंके समागममें ही कार्योत्पत्ति होती है और दोनोंका समागम न होने पर वह नहीं होती। स्वयं उत्तरपक्षने भी पूर्वपक्षकी इस मान्यताको त च०१० ६३ पर स्वीकार किया है कि "अपरपक्षके कथनका आपाय यह है कि विवक्षित कार्यपरिणाम योग्य तपादानमे योग्यता हो, परन्तु सहकारी सामग्रीका योग न हो या आगे-पीछे हो जो सका अनुसार कार्य है। "
उसरपक्षने त० च पृ० ६५ के उसी अनुच्छेदमें आगे और जो कुछ लिखा है वह सब गलत है । प्रकृत विषयमें गलत दृष्टिकोण अपनानेका ही वह फल है और आगमविरुद्ध है ।
उत्तरपक्षके उस लेखको मैं गलत इसलिए कहता हूं कि उसने वह पूर्वपक्षपर कार्योत्पत्तिके प्रति कार्यकारी अन्तरंग योग्यताको न माननेका उपर्युक्त प्रकार मिथ्या आरोप लगाकर लिखा है।
उत्तरपक्षके उस लेखको मैं उसके द्वारा गलत दृष्टिकोण अपनानेका फल भी इसलिए कहता हूँ कि कार्यकारी अन्तरंग योग्यताका मुख्यार्थ द्रव्यशक्ति ही है, क्योंकि द्रव्यशक्ति ही एक अनुकूल पर्यायशक्तिके पश्चात् अन्य अनुकूल पर्यायरूप परिणत होती है तथा पूर्व और उत्तर ये दोनों पर्याय निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका सहयोग मिलनेपर ही उत्पन्न होती हैं। पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि मिट्टीसे घटकी उत्पत्ति स्थूल दृष्टिसे स्थास, कोश और कुशल पर्यायोंकी उत्पत्तिके क्रमसे और सूक्ष्म दृष्टिसे एक-एक क्षणकी पर्यायोंको उत्पत्तिके कमसे होती है । परन्तु मिट्टीको ये सभी पर्यायें कुम्भकारके व्यापार आदि वाह्य सामग्रीके सहयोगपूर्वक ही होती है। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवमें क्रोत्र पर्यायकी उत्पत्ति उसमें विद्यमान तदनुकूल कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके सद्भाबमें होते हुए भी क्रोधकर्मक उदयको निमित्तकर ही होती है तथा उसकी उस क्रोध पर्यायके पश्चात् यदि क्रोध पर्यायको ही उत्पत्ति होती है तो उस उत्पत्ति में भी पूर्व क्रोध पर्यायको कारण मानना उचित न होकर क्रोधकर्मके उदयको ही सहायक रूपसे कारण मानना उचित है, क्योंकि जीवमें कोत्र पर्यायके पश्चात् मान आदि पर्यायोंमेंसे कोई एक पर्यायकी उत्पत्ति भी सम्भव है जिसमें पूर्व क्रोच पर्यायको कारण मानना उचित न होकर मान आदि कोक उदवको ही सहायक रूपसे कारण मानना उचित है। इस बातको पूर्वमें सहेतुक स्पष्ट किया आ चुका है। इससे निर्णीत होता है कि कायोत्पत्तिमें सर्वत्र कार्यकारी अन्तरंग योग्यताके रूपमें द्रव्यशक्तिको ही मुख्य कारण कहना उचित है, पर्यायशक्तिको नहीं ।
उत्तरपक्षके उस लेख को मैं आगमविरुद्ध भी इसलिये कहता हूँ कि मैंने इस समीक्षा-ग्रन्थमें सर्वत्र उत्तरपक्षकी कार्योत्पत्ति सम्बन्धी उक्त मान्यताको आगमविसव सिद्ध किया है । और पर्यायशक्तिक विषयमें सबसे