Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
बड़ा वर्क आगममे यह बतलाया गया है कि उसकी उत्पत्ति उसके कार्यरूप होने से बाह्य सामग्री के बलपर ही होती है। तथा यह बात अनुभव, तर्क और इन्द्रियप्रत्यक्ष से भी सिद्ध है
कथन ५५ और उसकी समीक्षा
(५५) पूर्वपक्षनेत०० पृ० २४ पर लिखा है कि "यहाँ हम उस कपड़े की एक-एक क्षणमें होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर रहे हैं" इत्यादि इसकी आलोचना में उसरपक्षने त० च० पृ० ६५ पर लिखा है कि "अपरपक्ष कालक्रमसे होनेवाली क्षणिक पर्यायोंके साथ कपड़ेको कोट पर्यायका सम्बन्ध जोड़ता उचित नहीं मानता । किन्तु कोई भी व्यंजन पर्याय क्षण-क्षण में होनेवाली पर्यायोंसे भिन्न हो ऐसा नहीं है । अपने सदृश परिणामके कारण हम किसी व्यंजन पर्यायको घटी, घंटा आदि व्यवहार कालके अनुसार चिरस्थायी कहें, यह दूसरी बात है पर होती हैं ये प्रत्येक समय में उत्पाद व्ययरूप ही पर्याय दृष्टिसे प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अन्य अन्य होता है, ऐसी अवस्थामें उस कपड़े को भी प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूपसे स्वीकार करना ही तर्क, आगम और अनुभवसम्मत माना जा सकता है। अतएव कपड़ेको कोट पर्याय कालक्रमसे होनेवाली नियतक्रमानुपाती ही है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।"
प्रतीत होता है कि उत्तरपक्षने जो यह सब लिखा है वह पूर्वपक्षके कथनके अभिप्रायको विपरीत समझकर लिखा है । पूर्वपक्ष के उक्त कथनका यह आश्रम नहीं है कि कपड़े की जो कोट पर्याय अपनी कार्यकारी अन्तरंग योग्यता के अनुसार प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त दर्ज के तदनुकूल व्यापार आदि बाह्य सामग्री आधारपर निष्पन्न हुई हूं वह क्षण-क्षणमें अन्य अन्य रूपताको प्राप्त दर्जीके व्यापार आदि वाह्य सामग्री आधारपर क्षण-क्षण में अन्य अन्य रूपताको नहीं प्राप्त होती हुई हो निष्पन्न हुई हैं, क्योंकि पूर्वपक्ष की मान्यता यह है कि कपड़े की अपनी कार्यकारी अन्तरंग योग्यता के अनुसार निष्पन्न हुई वह कोट पर्याय प्रायोगिक ढंग से प्राप्त दजके व्यापार आदि बाह्य सामग्रीको क्षण-क्षण में होती हुई अन्य अन्य रूपताके आधारपर क्षणक्षण में अन्य अन्य रूपताको प्राप्त होती हुई ही निष्पन्में हुई है । जैसा कि मिट्टी घटको उत्पत्ति कारणभूत नानाक्षणवर्ती स्वास कोश, कुशूल पर्यायोंकी अथवा सूक्ष्मरूपसे एक-एक क्षणवर्ती पर्यायोंकी उत्पत्ति से स्पष्ट है | अतः उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि " अपरपक्ष कालक्रमसे होनेवाली क्षणिक पर्यायोंके साथ कपड़े की कोट पर्यायका सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं मानता" सो उसका यह लिखना मिथ्या ही है। और इसीसे उसका यह कथन कि "कोई भी व्यंजन पर्याय क्षण-क्षण में होनेवाली पर्यायोंमे भिन्न हो ऐसा नहीं है । अपने सदृश परिणामके कारण हम किसी व्यंजन पर्यायको घटी, घंटा आदि व्यवहारकालके अनुसार चिरस्थायी कहें यह दूसरी बात है, पर होती हैं वे प्रत्येक समय में उत्पादव्ययरूप ही पर्यायदृष्टिसे जब कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूप होता है, ऐसी अवस्था में उस कपड़े को भी प्रत्येक समय में अन्य अन्य रूपसे स्वीकार करना हो तर्क, आगम और अनुभवसम्मत माना जा सकता है ।" अयुक्त है | इतनी बात अवश्य है कि पूर्वपक्षको उतरपक्षका "अतएव कपड़ेकी कोट पर्याय कालक्षपये होनेवाली नियतक्रमानुपाती है" यह कथन इस रूप में मान्य है कि कपड़ेकी अपनी कार्यकारी अन्तरंग योग्यता व प्रायोगिक ढंगसे प्राप्त दर्जाके व्यापार आदि वाह्य सामग्री के आधारपर निष्पन्न हुई कोट पर्याय उस बाह्य सामग्रीकी क्षण-क्षण में होती हुई अन्य अन्य रूपता के आधारपर क्षण-क्षण में अन्य अन्य रूप ही होती है ।
इस तरह पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षके मध्य इस समानता के रहते हुए भी पूर्वपक्षनेत० ० पृ० २४ पर जो यह कथन किया है कि "यहां हम उस कपड़ेकी एक-एक क्षण में होनेवाली पर्यायोंकी बात नहीं कर