Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तस्वधर्चा और उसकी समीक्षा भी मानना पड़ता है, अन्यथा सहकास सामग्री यथार्थकारा नहीं बन सकता है । ' आश्चर्य है कि उत्तरपक्ष पूर्वपक्षपर बाह्य सामग्रीको यथार्थ कारण माननेका मिथ्या आरोप लगा रहा है। उत्तरपक्ष बतलाये कि पूर्वपक्ष बाह्य सामग्नीको उपादामकी कार्यरूप परिणतिमें यथार्थ कारण कहाँ मानता है । वह भी अयथार्थकारण ही मानता है। इसलिये कार्यको सहकारी सामग्री स्वरूप माननेका प्रसंग उपस्थित ही महीं होता है। इतना ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार कार्यरूप परिणत होनेसे उपादानमें यथार्थकारणता वास्तविक है उसी प्रकार सहकारी कारणोंमें कार्यरूप परिणत न होनेपर भी उसमें सहायक होनेसे अयथार्थकारणता भी वास्तविक ही है, कल्पनारोपित या कथनमात्र नहीं है। इस तरह पूर्वपसकी उपर्युक्त मान्यता कार्य-कारण परम्पराके विरुद्ध नहीं है । यतः पूर्वपक्ष की उक्त मान्यतानुसार कार्योत्पत्ति में बाल सामग्रीकी मात्र सहायता अपेक्षित होनेके कारण कार्यको बाह्य सामग्री स्वरूप माननेकी प्रसक्ति नहीं आती है, अतः उत्तरपक्षका उक्त आरोप केवल गलत ही नहीं, निरर्थक भी है । कथन ५० और उसकी समीक्षा
(५०) इसके आगे उत्तरपक्षने त.० १०६३-६४ पर लिखा है कि "अपरपक्ष जानना चाहता है कि बाजारसे कोटका कपड़ा खरीदने के बाद जम तक दर्जी उसका कोट नहीं बनाता तब तक मध्यकालमें कपड़े में कौन-सी ऐसी उपादान योग्यताका अभाव बना हुआ है जिसके बिना कपड़ा कोट नहीं बनता। समाधान यह है कि जिस अव्यवहित पूर्वपर्यायके बाद कपड़ा कोट पर्यायको उत्पन्न करता है वह पर्याय उस कपड़े में जब उत्पन्न हो जाती है सब उसके बाद ही वह कपड़ा कोट पर्याय रूपसे परिणत होता है । इसके पूर्व उस कपड़ेको कोटका उपादान कहना म्याधिकनयका वक्तव्य है।" इसके विषयमें मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता है कि जब कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय निमित्तकारणभत बाह्म सामग्रीकी सहायतासे ही निष्पन्न होती है ऐसा आगम है तो उत्तरपक्षके उक्त कथनसे पूर्वपक्ष के प्रश्नका समाधान नहीं होता-वह तदनस्थ बना रहता है। कथन ५१ और उसकी समीक्षा
(५१) इसके आगे उत्तरपक्षने त च पृ० ६४ पर लिखा है कि "अपरपस कोट पहिननेको आकांक्षा रखने वाले व्यक्तिकी इच्छा और दर्जीकी इच्छाके आधारपर कोटका कपड़ा कब कोट बन सका यह निर्णय करके कोट कार्य में बाह्य सामग्रीक साम्राज्यकी भले ही घोषणा करे, किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । अपरपक्षके उस कम्पनको उलटकर हम यह भी कह सकते हैं कि कोट पहिननेकी आकांक्षा रखने वाले व्यक्तिने बाजारसे कोटका कपड़ा खरीदा और बड़ी उत्सूकता पूर्वक वह उसे दर्जीके पास ले भी गया किन्तु अभी जस कपड़े में कोट पर्याय रूपसे परिणत होने का स्वकाल नहीं आया था, इसलिये उसे देखते ही दर्जीकी ऐसी इच्छा हो गई कि अभी हम इसका कोट नहीं बना सकते और जब उस कपडेकी कोट पर्याय खन्निहित हो गई तो दर्जी, मशीन आदि भी उसकी उत्पत्तिमें निमित्त हो गये।" ।
इसके विषय में भी मेरा कहना है कि एक तो कपड़ेकी कोट पर्याय तभी सन्निहित होती है जब निमितभूत बाए सामग्री रूप दीं, मशीन आदिका व्यापार तदनुकल होता है। दूसरे, उत्तरपक्षका उक्त कथन आगम, युक्ति, अनुभब और इन्द्रियप्रत्यक्ष के भी विरुद्ध है। क्या उत्तरपक्ष उक्त प्रमाणोंके आधारसे यह सिद्ध कर सकता है कि जब कपड़ेको कोट पर्याय सन्निहित हो जाती है तभी दर्जी, मशीन आदिका तदनुकूल व्यापार होता है । इतना ही नहीं, उत्तरपक्षका मत कथन उसके इस विषयमें किये जाने वाले