Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपूर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उक्त दोनों प्रकारके निमित्तोंमें और उपादानगत कार्यमें स्वीकृत कालप्रशासत्ति भी पृथक्-पृथक् रूपमें ही होती है। अर्थात निमित्त के साथ कार्यकी अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंका होना यह प्रेरक निमित्त और उपादानगत कार्यकी मालभल्यासास है और कार्यके साथ निभिसकी अन्दय और व्यतिरेक व्यातियोंका होना यह उदासीन निमित्त और उपादानगत कार्यकी कालप्रत्यासत्ति है। इसके विपरीत उत्तरपक्षका कहना है कि मत: उपादानकारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है अतः उस वस्तुमें और कार्यमें द्रव्यप्रत्यासत्ति रहती है और निमित्त कारणभप्त वस्तु कार्यरूप परिणत नहीं होती व उस कार्य में सहायक भी नहीं होती। केवल उपादानकारणभत वस्तुकी कार्यरूप परिणतिके अवसरपर उपस्थित मात्र रहती है। अतः उस वस्तुमें और उपादानगत कार्यमें कालप्रत्यासत्ति रहती है। निमित्त प्रेरक और उदासीन दो प्रकारके होनेपर भी उनकी तपादानगत कार्यके प्रति कालपत्यासत्तिका कोई अन्तर नहीं रहता है, क्योंकि दोनों ही निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणतिके अवसरपर उपस्थित मात्र रहते हैं। दोनों ही निमित्तोंका उपादानगत कार्य प्रति न तो कार्यरूप परिणत होने रूपसे उपयोग होता है और न उपादानकी उस कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे ही उपयोग होता है अर्थात जो क्रियावान बाह्य द्रव्य उपादानगत कार्यके प्रति क्रियाके आधारपर निमित कहा जाता है वह प्रेरक निमित्त कहलाता है और जो कियावान अथवा निष्क्रिय बाह्य द्रव्य उपादानगत कार्य के प्रति क्रियाके आधारपर निमित्त न कहा जाकर निष्क्रियताके आधारपर निमित्त कहा जाता है वह उदासीन निमित्त कहलाता है। इस प्रकारका दोनों निमित्तोंमें अन्तर विद्यमान रहते हुए भी दोनों ही उक्त कार्यकी उत्पत्तिके अवसरपर समानरूपसे केवल उपस्थित मात्र रहा करते है। दोनों ही न तो उपादानगत कार्मरूप परिणत होते हैं और न उपादानगत कार्यकी उत्पत्तिमें सहायक ही होते है। तात्पर्य यह कि दोनों निमित्तोंमें फेवल प्रयोगका भेद पाया जाता है, कार्यभेद नहीं, अतः दोनों ही निमित्तोंमें कालप्रत्यासत्तिको उपादानगत कार्योत्पसिके अवसरपर उपस्थित रहने मात्रके रूपमें समानता पाई जाती है ।
उक्त विवेचनसे निम्नलिखित तथ्य फलित होते हैं
(१) कार्योत्पत्तिके विषयमें उपादानकी अपेक्षा दोनों पक्षोंको मान्य व्यवस्थाके सम्बन्धमें कोई अन्तर महीं देखने में आता । इसी तरह उसी कार्योत्पत्तिके विषयमें निमित्त की अपेक्षा दोनों पक्षों को माम्प व्यवस्थाके सम्बन्धमें यह समानता पाई जातो है कि दोनों ही पक्ष उपादातगत कार्यकी उत्पत्तिके अवसरपर निमित्तकी स्थितिको स्वीकार करते हैं । दोनों ही पक्ष यह भी स्वीकार करते हैं कि वह निमित्त प्रेरक और उदासीनके भेदसे दो प्रकारका होता है। दोनों ही पक्षोंका यह भी कहना है कि उपादानगस कार्योत्पत्ति के साथ दोनों निमित्तोंकी कालप्रत्यामति पाई जाती है और दोनों यह भी कहते है कि उपादानगत कार्यके प्रति दोनों निमित्तोंमें विद्यमान कारणता व्यवहारनयका विषय होती है। यह दोनों पक्षोंकी समानता विषयक तथ्य है।
(२) दोनों पक्षोंमें निम्नलिखित अन्तर भी पाया जाता है
(क) पूर्वपक्ष उपादानगत उक्त कार्यके प्रति निमिसको स्थितिको उस कार्यरूप परिणत न होनेके आधारपर अफिविस्कर और लस कार्योस्पत्तिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी रूपमें स्वीकार करता है, जबकि उत्तराक्ष उसो कार्योत्पत्ति के प्रति निमित्तकी स्थितिको उस कार्यरूप परिणत न होने और उस कार्योत्पत्तिमें सहायक भी न होनेके आधारपर सर्वथा अकिचित्कर रूपमें ही स्वीकार करता है।