Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा वो स्तः" इत्यादि समयसारकलश ५२ एक कार्यके दो उपादानकर्ताओंका ही निषेध करता है । वास्तवमें किसी भी एक कार्यका एक उपादानकर्ता होता है और दूसरा निमित्तकर्ता होता है । इसका वह निषेध नहीं करता। अतः उसके आधारपर उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्षको एक कार्यके प्रति एक उपादानकर्ता और दूसरा निमित्तका इन दो कर्ताओंकी मान्यताका निषेध किया जाना उचित नहीं है।
पूर्वपक्षने अपनी इस मान्यताके समर्थनमें समयसार गाया १०० और उसकी आत्मख्याति टीकाको भी वहीं उद्धृत किया है जिससे स्पष्ट विदित होता है कि कार्योत्पत्ति के प्रति उपादानकर्ताक साथ निमित्तकताको भी आगममें स्वीकार किया गया है। इसके अलावा आगममें स्वप्रत्यय परिणमनके अतिरिक्त स्वपरप्रत्यय परिणमनकी स्वीकृतिसे भी पूर्वपक्षको उक्त मान्यताको पुष्टि होती है। इस प्रकार उत्तरपक्षने त० च० पृ. ५४-५५ पर इस विषयमें जो कुछ लिखा है वह सब तर्कहीन और आगमविरुख है। आगेतच.५८ ५५ पर उसपने लिए
पर परे बतलाये कि जब जिसमें निमित्त व्यवहार किया गया है उसका कोई भी धर्म जिसमें नैमित्तिक व्यवहार किया गया है उसमें प्रविष्ट नहीं होता तो फिर वह यथार्थ में उसका निमित्त कर्ता-कारण रूपये का कैसे बन जाता है? आगममे जबांक ऐसे कथनको उपचरित या उपचरितोपचरित स्पष्ट शब्दोंम घोषित किया गया है तो अपरपक्षको एस भागमको मान लेने में आपत्ति क्या है। हमारी रायमे तो उसे ऐसे कयनको बिना हिचकिचाहटके प्रमाण मान लेना चाहिए।"
इस विषयमें मेरा कहना है कि पूर्वपक्ष भी ऐसे कयनको उपचरित या उपचरितोपचरित स्वीकार करता है। परन्तु वह उस उपचरित और उपचरितोपचरित कथनको कल्पनारोपित नहीं मानता है जबकि उत्तरपक्ष उसे कल्पनारोपित मात्र मानता है। यह प्रकट है कि मिट्टी में होने वाली घटोत्पत्तिम कुम्भकार, चक्र, दण्ड मावि सहायक होने रूपसे कारण होते हैं। इनमेंसे कुम्भकार उपचारतकारण है क्योंकि वह उस घटोत्पत्तिम साक्षात सहायक होता है। चक्र उस घटोत्पत्तिमें कुम्भकारका सहायक होकर परम्परया सहायक कारण होता है, अतः वह उपचरितोषचरित कारण और दण्ड उस घटोत्पत्तिमे चक्रका सहायक होकर कुम्भ- . कारका सहायक होता हुआ अपरपरम्परया सहायक कारण होता है, अतः वह उपचारतोपरितोपरित कारण है । इस तरह यद्यपि ये तीनों असद्भूत कारण है और असद्भुत व्यवहारनयके विषय है तथापि तीनोंकी उपयोगिता मिट्टीसे उत्पन्न होने वाले घटकी उत्पत्तिमें असन्दिग्ध है, क्योकि इनमसे किसी भी अभावमें घटोसत्ति नहीं होती। अतः तीनों ही अपने-अपने ढंगसे यथार्थ है । वे आकाशकुसुमकी तरह कल्पनारोपित कारण नहीं है अर्थात् घटोत्पत्तिमें इनकी उपचरित आदि रूपमें सहायता वास्तविक ही है, कल्पनारोपित नहीं है। कथन ३८ और उसकी समीक्षा
पूर्वपक्षने त० च० पृ० २० पर लिखा है कि "आगममें सर्वत्र कार्यकारणभावका अन्वय-त्र्यतिरेकके आधारपर ही माना गया है अर्थात् जिस वस्तुका जिस कार्यके साथ अन्वय-व्यतिरेक पाया जाता है वह वस्तु उस कार्यके प्रति कारण होती है ऐसा कथन आगमका है" इराकी पुष्टि के लिये ही उसने प्रमेयरत्नमाला (समुद्देश ३, सूत्र ६३ की व्याख्या) का उद्धरण भी दिया है।
पूर्वपक्षक इस कथनकी भी उत्तरपक्षने त० च० ५० ५५ पर आलोचना की है। लिखा है कि "अपरपक्षने प्रमेमरत्नमाला समुद्देश ३ सूत्र ५३ से "अन्वय-व्यतिरेक" इत्यादि वचन उद्धृत कर अपने पक्षका