Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
ही किया गया उसका यह कथन भी निरर्थक है कि "इसलिये आलापपद्धतिके उक्त वाक्यको ध्यान में रखकर अपरपक्षने उसके आधार से यहाँ जो कुछ भी लिखा वह ठीक नहीं यह तात्पर्य हमारे उक्त विवेचनसे सुतरां फलित हो जाता है ।" अच्छा होता, उत्तरपक्ष उन स्थलोंको भी यहाँ बतला देता, जहाँ उपचारको अविनाभावसम्बन्धरूप, संश्लेषसम्बन्धरूप और परिणाम - परिणामी सम्बन्ध आदि रूप बतलाया गया है । उसे यह भी उचित था कि वह इन सम्बन्धों के साथ उपचारका समन्वय करके दिखाता, जिससे उनकी भी समीक्षा या विमर्श किया जाता । उत्तरपक्षने यह राब कथन गुमसुम रूपमें ही किया है, अतः उसके विषय में कुछ भी नहीं लिखा जा सकता है ।
कथन ४१ और उसकी समीक्षा
(४१) पूर्वपक्षनेत० च० पृ० २१ पर व्याकरण के आधारपर उपादान और निमित्त दोनों शब्दों के अर्थको स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उसके विषयमें उत्तरपक्षने ० च० पृ० ६० पर कहा है कि "अपरपक्षने इसी प्रसंग उपादान पदको निरुक्ति तथा व्याकरण से सिद्धि करते हुए लिखा है कि " जो परिणमनको स्वीकार करे, ग्रहण करे था जिसमें परिणमन हो उसे उपादान कहते है । इस तरह ज्यादान कार्यका आश्रय ठहरता है" । तथा निमित्त पदकी निरुक्ति और व्याकरणसे सिद्ध करते हुए उसके विषय में बिसा है कि "जो मित्रके समान उपादानका स्नेहन करे अर्थात् उसकी कार्यपरिणति में मित्रके समान सहयोगी हो वह निमित्त कहलाता हूँ" । उपादान और निमित्तके विषयमें यह अपरपक्षका वक्तव्य है। इससे विदित होता है कि अपरपक्ष उपादानको मात्र कारण मानता है और निमित्त सहयोगी होता है कि कार्यका कौन होता है ? अपरपक्ष अपने उक्त कथन द्वारा कार्यको उपादानका तो स्वीकार कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं, अन्यथा उपादान के लिए "उसकी कार्यरूप परिणति में" ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करता । परन्तु वह उपादानको कार्यका मुख्य ( वास्तविक ) कर्ता नहीं मानना चाहता, इसका हमें आश्चर्य है । '
इसके सम्बन्धमें मुझे केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनमे हो यह सिद्ध होता है कि उपादान कार्यका कर्त्ता होता है और यह भी सिद्ध होता है कि वह उसका मुख्य कर्त्ता होता है तथा निमित्त उसको कार्यरूप परिणति में अपना सहयोग प्रदान करता है। इसलिये उत्तरपक्षने अपरपक्षपर जो आरोप लगाया है कि वह उपादानको कार्यका मुख्य ( वास्तविक ) कर्ता नहीं मानना चाहता है, इसका हमें आश्चर्य है । वह केवल तत्त्वजिज्ञासुओं के समक्ष पूर्वपक्षको गलत प्रस्तुत करनेका कुत्सित प्रयत्न है । कथन ४२ ओर उसकी समीक्षा
(४२) उत्तरपक्षनेत० प० पृ० ६० पर ही लिखा है कि "समयसार कलश में यदि जीव पृद्गलकर्म को नहीं करता है तो कौन करता है ऐसा प्रश्न उठाकर उसका समाधान करते हुए लिखा है कि यदि तुम अपना तीव्र मोह (अज्ञान दूर करना चाहते हो तो कान खोलकर सुनो कि वास्तवमें पुद्गल ही अपने कार्यकार्ता है जीव नहीं"। इसके आगे उसने समयसार के उस कलशको भी उद्धृत किया है। इसके आगे उसने लिखा है कि "अपरपक्ष जबकि कार्यके प्रति व्यवहारकर्ता या व्यवहारहेतु आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त हुए बाह्य पदार्थको उपचारकर्त्ता या उपचार हेतु स्वीकार कर लेता है ऐसी अवस्था में उसे भगममें किये गये उपचार पदके अर्थको ध्यान में रखकर इस कथनको अवास्तविक मान लेनेमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए । इससे उपादानकर्ता वास्तविक यह सुतरां फलित हो जाता है । बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहारको लक्ष्यमे रखकर उपचारकर्त्ता या उपचार हेतुका आगम में कथन क्यों किया है, इसका प्रयोजन है और इस प्रयोजनको