Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
११९ एक दूसरेकी क्रिया नहीं करते । फिर भी कालप्रत्यारात्तिवश यहाँ अन्नमें प्राणोंकी निमिसता उपचरित की गई है। अतएव अन्न जैसे प्राणोंका उपचरित हेतु है उसी प्रकार प्रकृतमें जान लेना चाहिए। वचनमें परार्थानुमानका उपचार क्यों किया जाता है इसका खुलासा भी इससे हो जाता है और इस उदाहरणसे भी यही ज्ञात होता है कि कुम्भकार वास्तवमें घटोत्पत्तिका हेतु नहीं है।"
इस कथनकी समीक्षामें मुझे इतना ही कहना है कि "अन्न हो प्राण हैं" यहाँपर अन्नमें प्राणोंका उपचार किया गया है और वह इन आधारों पर किया गया है कि अन्न यद्यमि प्राणहणताका अभाव है लेकिन वह अन्न प्राणोंके संरक्षणमें वास्तवमें निमित्त (सहायक) है, इसलिये आलापद्धतिके "मुख्याभावें" इत्यादि वचनके अनुसार अन्नको जो प्राण कहा गया है वह उपचारसे कहा गया है। इससे स्पष्ट होता है, कि अन्नमें प्राणों के संरक्षणको निमित्तता उपचरित नहीं है किन्तु प्राणोंके संरक्षणमें वास्तविक रूपमें निमित्त (सहायक) होनेके आधारपर अन्नमें प्राणरूपता उपचरित की गई है।
उत्तरपनने इसी अनुच्छेदमें जो यह लिखा है कि "ववनमै परार्थानुमानका उपचार क्यों किया जाता है इसका खुलासा भी इससे हो जाता है" सो उसका ऐसा लिखना असंगत है, क्योंकि वचन परार्थ अनुमानज्ञानमें हेतु होता है अतः वचनको भो परा अनुमान कहा गया है। तात्पर्य यह है कि परार्थ अनुमान प्रमाण तो वास्तव में ज्ञानरूप ही होता है, लेकिन उसके होनेमें वचन सहायक रूपसे हेतु होता है, अतः उस वचनको भी परार्थ अनुमान कहा जाता है। यहाँ कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। और ऐसा उपचार वस्तुबोधक होने काल्पनिक नहीं है, वास्तविक है ।
इसी अनुच्छेदके अन्तमें उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "इस उदाहरण से भी ज्ञात होता है कि कुम्भकार दास्तबमें घटोत्पत्तिमें हेतु नहीं है" सो उसका यह भ्रम है, क्योंकि कुम्भकार घटोत्पत्ति मिट्टीकी तरह घटरूप परिणत न होने पर भी मिट्टीकी उस घटरूप परिणतिम सहायक होने रूपसे वास्तविक हो हेसु है अर्थात् आकाशकुसुमको तरह कल्पनारोपित हेतु नहीं है और इस सहायकहेतुताके आधारपर कुम्भकारमें घटकर्तृत्वका उपचार किया जाता है । तात्पर्य यह है कि घटोत्पत्तिमें कुम्भकारका सहायक होना उपचरित नहीं है, वह तो वास्तविक है लेकिन सहायक होनेके आधारपर उसमें (कुम्भकारमें) घटका कर्तृत्व उपचरित है।
मागे उत्तरपक्षने त० च०१० ५९ पर यह कथन किया है कि "अपरपक्षने अपने प्रकृत विवेचनमें सबसे बड़ी भूल तो यह की है कि उसने बाध सामग्रीका स्वरूपसे अन्यके कार्यका निमित्त स्वीकार करके अपना पक्ष उपस्थित किया है। किन्तु उस पक्षकी ओरसे ऐसा लिखा जाना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त कथनको वास्तविक माननेपर अन्य व्यके कार्यका कारणधर्म दूसरे द्रव्यमें वास्तबमें रहता है यह स्वीकार करना पड़ता है और ऐसा स्वीकार करनेपर दो द्रव्योंमें एकताका प्रसंग उपस्थित होता है। अतएवं अपरपक्षको प्रकृतमें यह स्वीकार करना चाहिए कि बाह्म सामग्रीको अन्य कार्यका हेतु कहना यह प्रथम उपचार है और उस आधारसे उसे वही कहना या उसका कर्ता कहना यह दूसरा उपचार है। "अन्न वै प्राणाः" यह वास्तवमें उपचरितोपचारका उदाहरण है सर्वप्रथम तो यहाँ व्यवहार (उपचार) नयसे अन्नमें प्राणोंको निमित्तता स्वीकार की गई है और उसके बाद पुनः व्यवहार (उपचार) नयका आश्रय कर ही प्राण है ऐसा कहा गया है। यहाँ व्यवहार पद उपचारका पर्यायवाची है। अतएव बागममें जहाँ भी एक