Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपूर (खानिया) तत्वचर्चा और उसको समीक्षा
करनेसे सहायक कारणको सहायक कारण कहना भी असंगत हो जाता है । उत्तरपक्षके सामने ये सब समस्यायें हैं, जिनका समाधान उसके लिये संभव नहीं है ।
आगे उत्तरपक्षनेत० च० ० ५३ पर जो यह लिखा है कि "जीवम्हि हेदुभूदे" इत्यादि गाथा में आया हुआ “उवयारमण " पद ममद्भूत अर्थका सूचक है । सो इसमें भी पूर्वपक्षको विवाद नहीं है । परन्तु उसने आलापपद्धति के आधारपर जो असद्भूत व्यवहारको कल्पनारोपित मात्र सिद्ध करनेका प्रयास किया है उसका निराकरण पूर्वमें हो किया जा चुका है ।
आगे उत्तरपक्षनेत च० ५० ५३ पर ही लिखा है कि "परद्रव्य अन्य द्रव्यके कार्यका वास्तविक निमित्त नहीं और न वह कार्य उसका निमित्तिक है । यह व्यवहार है जो असद्भूत है । यही बात "उक्यारमत्तेण " इस पद द्वारा सूचित की गई है" सो उसके द्वारा निमित्तिला और नेमित्तकताको जो असदभूत व्यवहार माना गया है वह तो ठीक है, परन्तु निमित्तता और नैमितकता में दोनों सहाय्य सहायक भावके रूपमें वास्तविक ही है, कल्पनारोपित मात्र नहीं हैं ।
कथन ३३ और उसकी समीक्षा
पूर्व सहकारीकरणको कार्यके प्रति कार्यकारिताकी सिद्धिके लिये त० ० पृ० १८ पर अष्टसही पृष्ठ १०५ पर निर्दिष्ट अष्टराती के निम्नलिखित वचनको उद्धृत किया है
'तदसामथ्र्यंमखण्डयद किचित्कर कि सहकारिकारणं स्यात् ?"
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इसका अर्थ उसने यह किया है कि "उसकी अर्थात् उपादानको असामथ्र्यका खण्डन नहीं करते हुए सहकारी कारण यदि अकिचित्कर ही बना रहता है तो उसे सहकारी कारण कहा जा सकता है क्या ? अर्थात् नहीं कहा जा सकता है । राो इस पर विचार करते हुए उत्तरपक्षने त० च० पृ० ५३ पर यह कथन किया है -- "मीमांसादर्शन शब्दको सर्वथा नित्य मानकर सहकारी कारणसे ध्वनिकी प्रसिद्धि मानता है और फिर भी यह कहता है कि इससे शब्द अविकृत रूपसे नित्य ही बना रहता है । अष्टशती (अत्री पृ० १०५) का " तदसामर्थ्यमखण्डयत्" इत्यादि वचन इसी प्रसंग में आया है। इस द्वारा भट्टाकलंकदेवने मीमांसादर्शनपर दोषका आपादन किया है । इस द्वारा जैन दर्शनके सिद्धांत का उद्घाटन किया है, ऐसा यदि अपरपक्ष समझता है तो इसे हम उस पक्ष की भ्रमपूर्ण स्थिति हो मानेंगे। हमें इसका दुःख है कि उसकी ओर से अपने पक्ष के समर्थन में ऐसे वचनों का भी उपयोग किया गया है ।" इसकी समीक्षा निम्न प्रकार है
भट्टाकलंकदेव ने अपने ग्रन्थ अष्टवाती में " तदसामर्थ्य मखण्डयत्" इत्यादि वचनका निर्देश मीमांसादर्शन द्वारा शब्दको सर्वथा नित्य मानकर सहकारी कारणसे ध्वनिकी प्रसिद्धि क्रियं जानेपर दोषका आपादान करनेके लिये फिया है | परन्तु इससे सहकारी कारण की कार्य के प्रति पूर्वपक्ष द्वारा स्वीकृत कार्यकारिताको सिद्धिमें कोई बाघा नहीं आती है। यदि उत्तरपक्षको इसमें कोई बाधा समझ में आई थी तो उसे उसका स्पष्ट निर्देश करना चाहिए था । वास्तव में भट्टाकलंकदेवका भावाय उक्त कथन करनेमें यह है कि मीमांसादर्शन में एक ओर तो शब्दको सर्वथा नित्य मानकर सहकारी कारणसे ध्वनिकी प्रसिद्धि की गई है और दूसरी ओर ऐसी स्थिति में भी शब्दको अविकृत रूपसे नित्य हो स्वीकार किया गया है, जो असंभव है, क्योंकि भट्टा कलंकदेव के कथनानुसार यदि सहकारी कारण शब्दकी ध्वनि रूपसे परिणत न हो सकने रूप असामर्थ्यका खण्डन नहीं करता है-वह यहां पर सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है तो उसे सहकारी कारण नहीं कहा