Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा और उसकी समीक्षा
असामर्थ्य का खण्डन होना ही बतलाया गया है । अष्टशतीके उक्त वचन तथा अन्य आगम प्रमाणसे यही अवगत होता है कि सहकारीरूप वस्तु किसी दूसरी कार्यरूप परिणत होनेवाली उपादानरूप वस्तुकी कार्यरूप परिणत न हो सकनेरूप असमार्थ्यका हो खण्डन करती हूँ, न कि उसकी सामथ्र्यका तात्पर्य यह हैं कि उपादान शक्ति ( कार्यरूप परिणत होने की योग्यता ) विशिष्ट वस्तु जो कार्यरूप परिणत होने में असमर्थ रहती है उसकी उस असमर्थताका खण्डन करके सहकारी कारण उसे कार्यरूप परिणत होनेके लिये समर्थ बना देता है । जैसे चलनेकी योग्यता विशिष्ट पंगु मनुष्य तभी गमन कर सकता है जब उसे लाठीका सहारा मिल जाता है। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि लाठी उस पंगु व्यक्तिको चलनेको योग्यताका खण्ड कर देती है तथा ऐसा भी नहीं समझना चाहिए कि सहकारी कारण उपादान शक्तिसे रहित वस्तुमें उस उपादान शक्तिको उत्पन्न कर देता है । जैसे चलने की योग्यता रहित छोटा शिशु लाठीका सहारा मिल जानेपर भी गमन नहीं कर सकता है। इस प्रकार सहकारी कारणका कार्य न तो विवक्षित उपादान शक्ति से रहित वस्तुमें उपादानशक्तिको उत्पन्न करना है और न विवक्षित उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तुको उस उपादान शक्तिको समाप्त करना है, केवल विवक्षित उपादान शक्ति विशिष्ट वस्तुको कार्यक्षम बनाना ही सहकारी कारणका कार्य है। इसका आशय यह है कि सहकारी कारणका सहयोग प्राप्त होनेपर ही उपादान कारणभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है ।
उत्तरपक्षनेत० ० ० ५३ पर आगे लिखा है कि "अपरपक्षने अष्टशतीके उक्त वचन में आये हुए 'तत्' शब्दका अर्थ 'उपादान' जान-बूझकर किया है जबकि उसका अर्थ 'सर्वथार नित्य शब्द' है। यह सूचना हमने पूर्व की हैं और इस अभिप्राय से की है कि जैनदर्शनमें उपादानका अर्थ 'नित्यानित्य वस्तु' किया गया है किन्तु मीमांसा दर्शन शब्दको ऐसा नहीं स्वीकार करता” सो उत्तरपक्षके इस कथनमें पूर्वपक्ष को कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु अष्टशती के 'तत्' शब्दका अर्थ "सर्वथा मित्व शब्द" होनेपर भी प्रकरणवश उसका वहाँ उपादान अर्थ करना असंगत नहीं है, भले ही मीमांसक ध्वनिकी अपेक्षा उपादान कारणभूत शब्दको सर्वथा नित्य माने व जैन सभी उपादान कारणभूत वस्तुओंको नित्यानित्य माने । इतना अवश्य है कि वस्तुको सर्वथा नित्य मानने से उसका कार्यरूप परिणत होना असंभव है । नित्यानित्य मानने से ही वस्तु सहकारी कारणका सहयोग प्राप्त होनेपर कार्यरूप परिणत हो सकती है। वस्तुतः यहाँ 'सहकारी कारण' के प्रयोगते तत् शब्द से 'उपादान कारण' का ग्रहण ही अभीष्ट है। इस तरह पूर्वपक्षने प्रकरणवश "तत्" शब्दका यदि उपादान अर्थ किया वो इससे जैन सिद्धान्तका विघात नहीं होता हूँ ।
कथन ३४ और उनकी समीक्षा
आगे उत्तरपक्षनेत० च० पृ० ५३ पर ही लिखा है- "अपरपशने समयसार गाया १०५ की आत्मख्याति टीकाको उपस्थित कर जो अपने विचारोंकी पुष्टि करनी चाही है वह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त टीकाके अन्त में आये हुए "स तु उपचार एव न तु परमार्थ" इस पदका अर्थ है - वह विकल्प तो उपचार ही हैं अर्थात् उपचरित अर्थको विषम करनेवाला ही है। परमार्थरूप नहीं है अर्थात् यथार्थ अर्थको विषय करने वाला नहीं है" ।
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ऊपर उसरपक्षने पूर्वपक्ष द्वारा किये गये समयसारगाथा १०५ की आत्मख्याति टीकाके उल्लिखित अर्थके विषय में गलत चित्रण किया है। उत्तरपक्ष ने अपने वक्तव्यमें जो लिखा है कि "टीकाम आयें हुए