Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP

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Page 297
________________ जयपुर (खनिया) तत्वचर्चा सौर उसकी समीक्षा या परिणमन करता है।" उक्त पद्य में "यः परिणमति" पद है "पत्परिणमनं भवति" पद नहीं है, नहीं मालूम, अपरगक्षने उक्त पदके यथार्थ अर्थको न करके स्वमतिसे अन्यथा अर्थ क्यों किया। स्पष्ट है कि बह पक्ष उपादानको यथार्थकर्ता बनाये रखने में अपने पक्षकी हानि समझता है। तभी तो उस पक्षके द्वारा इस प्रकारसे अर्थमें परिवर्तन किया गया ।" __उत्तरपक्षके इस कथनकी समीक्षामें मैं सर्वप्रथम यह कहना चाहता हूँ कि उसने (उत्तरपक्षने) "य: परिणमति" पदके "जो परिणमन होता है" इस अर्थको लेकर जो यह निष्कर्ष निकाला है कि "स्पष्ट है कि यह पक्ष उपादानको यथार्थ कर्ता बनाये रखने में अपने पक्षकी हानि समझता है तभी तो उस पक्षके द्वारा इस प्रकारसे अर्थमें परिवर्तन किया गया।" सो उसका उक्त अर्थवे आधारपर ऐसा निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है, जयोंकि उस अयंका इस तरहके निष्कर्षके साथ कोई मेल नहीं बैठता है। दूसरे, तत्त्वममि "यः परिणमति पदका जो यह अर्थ पाया जाता है कि "जो परिणमन होता है" सो यह पूर्वपक्ष पारा स्वीकृत अर्थ नहीं है । उसके द्वारा स्वीकृत अर्थ तो यह है कि "जो परिणमित होता है, जिसकी पुष्टि पूर्वपक्ष द्वारा किये गये "अर्थात जिसमें या जिसका परिणमन होता है। इस स्पष्टीकरणसे हो जाती है, क्योंकि पह स्पष्टीकरण "जो परिणमित होता है" इस अर्थका ही हो सकता है । "जो परिणमन होता है" इस का नहीं। इस बातको उसरपक्ष न समझता हो, ऐसा नहीं है। वास्तव में पूर्वपक्षने "यः परिणमति" पदका यद्यपि "जो परिणमित होता है" यही अर्थ किया था, परन्तु टाइप करने वालेकी भलसे उसके स्थानमें "जो परिणमन होता है" यह टाइप हो गया, जिसका संशोधन नहीं हो सका । अतः उत्तरपक्षने इस सामान्य अशुखिको लेकर जो पूर्वपक्षकी आलोचना की है वह केवल बातका बवण्डर बनाना है । अतः उक्त पदका अर्थ पूर्वपक्षने 'जो परिणमित होता है' यह किया है, जिसे उत्तरपक्ष अस्वीकार नहीं कर सकता। कथन ३६ और उसकी समीक्षा (३६) उत्तरपक्षने त• च० पृ० ५४ पर यह कथन किया है कि "आगममें निमित्त व्यबहार और निमित्तकर्ता आदि व्यवहारको सूचित करनेवाले वचन पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध होते है इसमें संदेह नहीं, पर उसी आगममें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि ये सब बचन असद्भूत व्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर ही भागममें निबद्ध किये गये है।"}-इसके लिए देखो, समयसार गाथा १०५ से १०८ तथा उनकी आत्मख्याति टीका, बृहदव्य संग्रह गाथा ८ की टीका आदि)। ___ इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्ष भी ऐसे सभी वचनोंको असद्भूतव्यवहारनयके ही वचन मानता है । परन्तु दोनों पक्षोंमें अन्तर यह है कि जहां उत्तरपक्ष असद्भूतव्यवहारनयकै विषयको उपचरित मानकर भी उस उपचारको कल्पनारोपित मात्र मानता है वहीं पूर्वपक्ष असद्भुतस्यवहारनयको उपचरित मानकर भी उस उपचारको कल्पनारोपित मात्र न मानकर उपचरित रूपमें वास्तविक ही मानता है। कथन ३७ और उसकी समीक्षा (३७) पूर्वपक्षने त० च पृ० १९ पर उत्तरपक्षके प्रति यह कथन किया है कि इसमें "जो परिगमित होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है यह कर्ता है" कर्ताका यह लक्षण उपादानोंपादेमभावको लक्ष्य में रखकर ही माना गया है। परन्तु इसपर ध्यान न देते हए इस लक्षणको सामान्यरूपसे

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