Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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जा सकता है । इस तरह इससे अहाँ एक और मीमांसा दर्शनके प्रति दोषका आपादन होता है वहीं दूसरी और इरारी जैन दर्शनके सिद्धान्तका उद्घाटन भी हो जाता है। अतः भ्रमपूर्ण स्थिति पूर्वपक्षकी न होकर उत्तरपक्षको ही हो रही है । उत्तरपक्ष उक्त वचन के विषयमें इस तथ्यको समझ ले तो उसकी वह भ्रमपूर्ण स्थिति समाप्त हो जायेगी तथा पूर्वपक्षके प्रति दुःख प्रगट करनेको उसे कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी।
___ उत्तरपक्ष का कहना है कि अष्टशतीफे उक्त बघनसे जैन दर्शनके सिद्धांतका उद्घाटन नहीं होता है, क्योंकि उसका यह भ्रम बना हुआ है कि जैन दर्शन सहकारी कारणको कार्यके प्रति अकिषिरकर ही स्वीकार करता है। किन्तु यह स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें सहकारी कारणको कार्योत्पत्ति के प्रति कार्यकारी स्वीकार किया गया है । यह हम प्रमेयकमलमार्तण्ड (२-१, पृ० १८७) के उद्धरण द्वारा पूर्वमें विशेषरूपसे स्पष्ट कर आये है और उसका अर्थ भी यहाँपर दिया गया है ।
तात्पर्य यह कि प्रमेयकमलमार्तण्डका यह कथन सहकारी कारणको कार्योत्पत्ति के प्रति स्पष्ट रूपसे कार्यकारी सिद्ध करता है। पूर्वपक्षने त. च.१०४०६ पर भी प्रमेयकमलमार्तण्डके उस उद्धरण को दिया है तथा स्वयं उत्तरपक्षने भी तब च ५० ३८५ पर उसे दिया है। पूर्वपक्षने तच में सर्वत्र ऐसे बहतसे आगमप्रमाणोंके उद्धरण दिये है, जिनसे कार्योत्पत्ति के प्रति सहकारी कारण की कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। अत: उत्तरपक्षका सहकारी कारणको कार्यके प्रति सर्वथा अकिंचित्कर मानना असंगत है। उत्तरपक्षको पूर्वाग्रहका परित्याग करके तटस्थ भावसे वस्तुस्थितिपर विचार करना चाहिए।
___ उत्तरपक्षने उक्त अनुच्छेदमे आगे यह लिखा है कि "सर्वपा नित्यवादी मीमांसक यदि पान्दको सर्वथा नित्य मानता रहे, फिर भी वह उसमें ध्वनि आदि कार्यकी प्रसिद्धि सहकारी कारणोंसे माने और ऐसा होनेपर भी वह शब्दों में विकृतिको स्वीकार न करे तो उसके लिये यही दोष तो दिया जायेगा कि सहकारी कारणोंने उसकी सामर्थ्यका यदि खण्डन नहीं किया सो उन्होंने ध्वनि कार्य किया यह कैसे कहा जा सकता है, वे तो अकिंचित्कर ही बने रहे । स्पष्ट है कि इससे अपरपक्षके अभिप्रापकी अणु मात्र भी पुष्टि नहीं होती।"
___ मालूम पड़ता है कि उत्तरपक्षने ऐसा कहते समय प्रकृतका गहराईसे विचार नहीं किया है, क्योंकि उसके कयनसे ही स्पष्ट है कि शब्दोंमें ध्वनि कार्यको प्रसिद्धिके प्रति सहकारी कारण अकिचिस्कर नहीं बने रहते हैं, अपितु उनके सहयोगसे ध्वनि रूप परिणत होनेकी योग्यता विशिष्ट शब्द ध्वनि रूप परिणत होने में समर्थ होते है । अन्यथा उन्हें सहकारी कारण नहीं कहा जा सकता है। उसरपक्षके इस वक्तव्यसे सहकारी कारणोंकी कार्यके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारिता स्पष्ट सिद्ध होती है । अतएव उसका यह लिखना असंगत है कि ''स्पष्ट है कि इससे अपरपक्षक अभिप्रायको अणु मात्र भी पुष्टि नहीं होती है" । जबकि उसके ही अभिप्रायकी पुष्टि होती है।
__ उत्तरपक्षने वहीं यह लिखा है कि "सहकारी कारणोने उसकी सामर्थ्यका यदि खण्डन नहीं किया तो उन्होंने ध्वनि कार्य किया यह फैसे कहा जा सकता है"? सो इसमें जो उस 'सामर्थ्य' शब्दके स्थान में सामर्थ्य शब्दका परिवर्तन किया है वह उसकी अनवधानताका सूचक है, क्योंकि अष्टशतीके उक्त बचनमें 'सामर्थ्य' शब्दका पाठन होकर 'असामथ्र्य' शब्दका ही पाठ है और दही प्रकृतसंगत है। यदि उत्तरपक्षने 'असामय' शब्दके स्थानमें 'सामर्थ्य' शब्दका प्रयोग बुधिपूर्वक किया है तो यह उसका छस है क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार एक वस्तु दूसरी वस्तु की सामर्थ्यका खण्डन कभी नहीं कर सकती है। जिनागममें सहकारी कारणसे उपादान (कार्यरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट वस्तु) के सामर्यका खान होना नहीं बतलाया है, अपितु उसकी
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