Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Author(s): Vanshidhar Vyakaranacharya, Darbarilal Kothiya
Publisher: Lakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
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शंका-समाधान १ की समीक्षा
प्रश्न केवल यह है कि परसंगरूप निमित्तकारण आरमाकी विकारपरिणतिरूप कार्यमें सहायक रूपसे किंचित्कर है या सहायक न होने रूपसे अकिंचिकर है? इसका समाधान खोजनेपर यही मिलता है कि जीवकी सुख-दुःखादि परिणति परके संयोगका निमित्त मिलनेपर ही होती है। यही नहीं, जीवकी रागादिरूप परिणति भी व्यकर्मोदयके साथ परका संयोग पाकर हुआ करती है। जीव कर्मोदय के बिना और परकी संगतिके बिना अपने आप अर्थात् स्वभावसे ही रागादिरूप परिणत नहीं होता है। यही कारण है कि जीबकी रागादिरूप परिणतिको स्वभाव परिणति न मानकर विभाव परिणति हो आगममें माना गया है। अतः 'न जात' इत्यादि कलशसे उत्तरपक्ष जो यह सिद्ध करना चाहता है कि जीव परकी सहायताके बिना अपने आप ही सुख-दुस्खादिरूप या रागादिरूप परिणति करता रहता है सो उसका यह प्रयत्न निरर्थक ही है। एक बात यह भी है कि अचेतन मिट्टीको जो घटादिरूप परिभाति होती है वह कुम्भकारकी सहायताके बिना नहीं होती । इसलिये उत्तरपक्षको यह विचार करना है कि मिट्टी कामकारका संग करके घटरूप परिणत होती है या कुम्भकारका संग होनेपर वह घटरूप परिणत होती है। पहला विकल्प तो मिट्टी के अचेतन होनेके कारण संगत नहीं हो सकता है, दूसरा विकल्प ही संगत हो सकता है । लेकिन ऐसा स्वीकार कर लेनेपर उत्तरपक्षको मिट्टीकी घटरूप परिणतिमें कुम्भकारको सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानना अनिवार्य हो जाता है। उसे तथा तत्त्वजिज्ञासुओंको इसपर गम्भीरताके साथ विचार करना चाहिए।
___ आगे तक च० पृ० ५२ पर ही उत्तरपक्ष ने "जीवपरिणामहेंदु" से लेकर "कोई किसी दूसरेके परिणामका वास्तविक कर्ता नहीं है" यहाँ तक जो कुछ लिखा है वह निर्विवाद है । परन्तु उसने जो यह लिखा है कि "फिर भी यदि अपरपक्ष सहकारी कारणका यह अर्थ करता है कि वह दूसरे प्रख्यकी क्रियाको सहायक रूपमें करता है तो उसे अपने इस सदोष विचारके संशोधनके लिये समयसारगाथा ८५-८६ पर दृष्टिपात करना चाहिए।" इस विषयमें हमारा कहना है कि समयसार माथा ८५-८६ का अभिप्राय यह है कि यदि जीवको अपने भावों और पुदगलके भावों (परिणामों) का वास्तविक कर्ता माना जाता है तो उसमें परकी और अपनी दोनों क्रियाओंको फर नेकी प्रराक्ति होती है, जो आगम और अनुभवके प्रतिकूल है । इसलिये ऐसा मानने वाला जीव मिध्यादृष्टि है। इस तरह समयसारकी ८५-८६ गाथाएँ एक द्रव्यमें दुसरे द्रव्य के कार्यके वास्तविक (निश्चय) कर्तत्वका ही निषेध करती है, सहायकरूप उपचरितकर्तत्वका नहीं, क्योंकि एक द्रव्य अपनी क्रियाको करता हुआ भी दूसरे द्रव्यको क्रिया में सहायक हो सकता है, इसमें आगम, अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंसे कुछ भी विरोध नहीं है और न यह लोकव्यवहारके ही विरुद्ध है । अतः उत्तरपक्ष द्वारा ऊपर "फिर भी यदि" इत्यादिके रूपमें जो कुछ लिखा गया है वह निरर्थक है तथा उसके आमें उसने और लिखा है कि ''यदि वह उसका कालप्रत्वामत्तिवश "पदनन्तर यद्भवति" इतना ही अर्थ करता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। ऐसा अर्थ करना आगमसम्मत है" सो इसके विषयमें भी हमारा कहना यह है कि सहायक कारणको कार्यके साथ कालप्रत्यासत्तिका केवल इतना ही रूप नही है कि कार्य सहायक कारणके सद्भावमें होता है, प्रत्युत उसका रूप यह है कि कार्य सहायक कारणके सद्भावमें उसकी सहायतासे हुआ करता है, क्योंकि कालप्रत्यासत्तिका कार्योत्पत्तिके अवसरपर सहायक कारणका केवल सद्भाव अर्थ करनेसे एक तो "तदसामर्थ्य मखण्डयत्" इत्यादि आगम प्रमाणसे विरोध आता है। दूसरे, कार्योत्पत्तिके अवसरपर विद्यमान सहायक कारणसे अतिरिक्त अन्य वस्तुओंकी भी कार्यके साथ कालप्रस्पासत्ति स्वीकार करनेका प्रसंग उपस्थित होता है और तीसरे, कालप्रत्यासत्तिका केवल सदभाव अर्ष स्वीका